मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

डा. मीनाक्षी स्वामी - भारत की सामासिक संस्कृति और अल्लामा इकबाल

राष्ट्रकवि  दिनकर  ने  इकबाल  के  लिए  कहा था ‘इकबाल  की  कविताओं  से, भारत की सामासिक संस्कृति को बल मिला था।’
    ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलसितां हमारा’ जैसी कालजयी और भारत की सामासिक संस्कृति को बल देने वाली इकबाल की यह शायरी आज भी हिंदुस्तान की जनता के दिलों पर राज कर रही है।
इकबाल से पहले थोड़ी सी चर्चा संस्कृति पर। संस्कृति क्या है?

    संस्कृति किसी भी राष्ट्र या देश की वे उपलब्धियां हैं, जो उसने सदियों से अर्जित की होती हैं, जिनसे उसके इतिहास, समाज, राजनीति, आर्थिक, प्राकृतिक परिवेश, आचार विचार, ज्ञान विज्ञान, दार्शनिक विचारधाराओं, धर्म, लोक कलाओं और जीवन आदि के बारे में पता चलता है। संस्कृति का सम्बंध जहां मानव के शारिरीक, मानसिक, बौध्दिक शक्तियों के विकास के साथ है, वहीं धर्म, कला, दर्षन और साहित्य भी इसके अभिन्न अंग हैं। यह किसी भी देश की आत्मा और प्रेरणा स्त्रोत है। संस्कृति को राष्ट्रीयता से अलग नहीं किया जा सकता है। संस्कृति मानव समाज के संस्कारों का परिष्कार और परिमार्जन है। यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है। मनुष्य के लिए जो भी मंगलकारी है, वह संस्कृति का अंग है।
और अब बात भारत की सामासिक संस्कृति की।
यह तो सभी जानते हैं, स्वीकारते हैं कि भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति में से है, जिसने युगों-युगों तक मानवता को मार्गदर्शन दिया। भारतीय संस्कृति मानवीय मूल्यों के सबसे अधिक निकट है क्योंकि इसमें हजारों वर्षों के सामाजिक अनुभवों का समावेश है। भारतीय संस्कृति का मूल आधार धार्मिक और आध्यात्मिक रहा है। यह गंगा के प्रबल प्रवाह की तरह है जिसमें अनेक विदेशी संस्कृतियां आई और सहायक नदियों की तरह विलीन हो गई। अनेक उतार-चढ़ाव, संकटों में भी भारतीय संस्कृति की अस्मिता कायम रही है।
यही कारण है कि विश्व की दूसरी समकालीन संस्कृतियां बगैर कोई चिन्ह छोड़े काल की धारा में समाहित हो गई। भारतीय संस्कृति समयानुसार थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ आज भी स्थिर है।
अल्लामा मोहम्मद इकबाल ने भारतीय संस्कृति की इसी महिमा को बताते हुए कहा था
        ‘यूनानो मिस्त्र रोमां सब मिट गए जहां से,
        बाकी मगर है अब तक, नामो निशां हमारा।
            कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
            सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहां हमारा।’
    इसी प्रकार उनकी रचनाएं ‘नया शिवालय’, ‘तराना ए हिंद’, तस्वीरे दर्द आदि भी भारत की सामासिक संस्कृति के समर्थन में हैं।
    इकबाल का जन्म 1873 में और मृत्यु 1938 में हुई। उनके दादा सहज सप्रू हिंदू काश्मीरी पंडित थे, जो बाद में सियालकोट आ गए। शुरूआती शिक्षा सियालकोट में लेने के बाद लाहौर से उन्होंने एम.ए. किया, केम्ब्रिज में दर्षन का अध्ययन किया और म्युनिख से डाक्टरेट की उपाधि ली। डाक्टरेट का विषय ईरानी रहस्यवाद था। 1908 में वे भारत लौटे और लाहौर में बेरिस्टरी शुरू की। मगर उनका मन कविता और दर्शन में ही रमा। लाहौर में उन दिनों मुशायरों की धूम मची हुई थी। इकबाल ने भी उनमें शामिल होकर अपना कलाम सुनाना शुरू किया और शोहरत की बुलंदियां छूने लगे।
    इस्लाम की जागृति पर उनकी श्रध्दा जरूर थी पर उनके विचारों में राष्ट्रीयता भरपूर थी। वे हिंदू मुस्लिम एकता के हामी और भारतीय स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। ‘बांगेदरा’ में इस्लाम के साथ हिंदू और सिक्ख मत के प्रति भी आदर के सशक्त भाव झलकते हैं। उनकी राम और नानक पर लिखी कविताएं भारत की सामासिक संस्कृति के समर्थन का प्रमाण हैं। बांगेदरा राष्ट्रीय काव्य है। उसकी हर पंक्ति में राष्ट्रीय एकता के लिए बेचैनी दिखाई देती है।
    ‘नया शिवालय’ के भाव बहुत ही तेजस्वी और पवित्र हैं। ये उस बेचैन कवि के भाव हैं जो इंसान से कहना चाहत हैं कि तुम्हारा आधार वह मिट्टी है जिस पर मंदिर मस्जिद खड़े हैं और यह मिट्टी मंदिर मस्जिद दोनों से बढ़कर पवित्र है।
    वे लिखते हैं  ‘मिट्टी की मूरतों समझा है तू, खुदा है।
            खाके वतन का मुझको हर जर्रा देखता है।’
    वास्तव में मातृभूमि सभी धर्मों से ऊपर है।    
    तस्वीरे दर्द में उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता की प्रतिज्ञा की थी-
            ‘पिरोना एक ही तस्बीह में इन बिखरे दानों को,
            जो मुश्किल है तो इस मुश्किल को आसां करके छोड़ूंगा।’
    इकबाल ने यूरोप में रहते हुए सांस्कृतिक विचार का एक खाका तैयार किया था। वहां उन्होंने तीन बातें देखी, एक तो यह कि यूरोपवासी उत्साही और क्रियाशील हैं। जहां उन्हें आगे बढ़ने में बाधा दिखती है, निर्मूल कर देते हैं। दूसरी कि वे अवसरों का उपयोग करके आगे बढ़ जाते हैं। निरंतर प्रगति करते हैं। तीसरी जो बात देखी, वह उन्हें ठीक नहीं लगी कि वैज्ञानिक प्रगति, सुख भोग के अनेक साधनों के बाद भी उनका हृदय खोखला और आत्मा रिक्त थी।
    इस भयानक पक्ष को देखकर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आंख मूंदकर यूरोप की नकल करने से विनाश ही होगा।
    इन यूरोपीय सांस्कृतिक अनुभवों का साया उनकी कविता पर भी पड़ा। उन्होंने अपनी कविताओं में मनुष्य को कर्मठ बनने और बाधाओं को कुचलकर असंभव लक्ष्य पाने की प्रेरणा दी।
    बाले जिबराल में वे कहते हैं ‘सितारों से आगे जहां और भी हैं।
                    तू शाहीं है परवाज है काम तेरा।
                    तेरे सामने आसमां और भी हैं।’
    इसी तरह एक बंद है-
                    ‘खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
                    खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।’
    वे जीवन में सतत क्रियाषीलता की प्रेरणा देते रहे। बाले जिबराल में ही-
                    ‘नहीं साहिल तेरी किस्मत में अय मौज,
                    उमड़कर जिस तरफ चाहे, निकल जा।’
    खतरों से घबराने को इकबाल ने सबसे बड़ी पराजय माना और नौजवानों को खतरों से लड़ने के लिए प्रेरित किया-
                    ‘खतरपसंद तबियत को साजगार नहीं
                    वे गुलसितां कि जहां घात में न हो सैयाद।
                    मुझे सजा के लिए भी पसंद नहीं वो आग,
                    कि जिसका शोला न हो तुन्दो-सरकशो-बेबाक।’
                                     (तेज, बागी, निडर)
    दरअसल शायरी में इकबाल का कोई मुकाबला ही नहीं था। उनकी शायरी का जब अंग्रेजी में अनुवाद हुआ तो उनकी ख्याति इंग्लैंड तक पहुंच गई। उससे प्रभाति होकर जार्ज पंचम ने उन्हें सर की उपाधि दी। बाद में उनकी शायरी का यूरोप की दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ।
    इकबाल की जुबान ही शायरी है। जो कहा वही शेर हो गया। राम और नानक पर लिखने के साथ ही उन्होंने धार्मिक सौहार्द के लिए शिवाला जैसी रचनाएं लिखी। आजादी और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत रचनाएं लिखी। बच्चों को प्रेरणा दी।
    शिक्षा को भी उन्होंने अपनी शायरी में महत्वपूर्ण बताया। ‘शहद की मक्खी’ रचना में वे किताबें पढ़ने की प्रेरणा भी देते हैं-
            ‘रखते हो अगर होश तो इस बात को समझना।
            तुम शहद की मक्खी की तरह इल्म को ढूंढो।
            ये इल्म भी एक शहद है और शहद भी ऐसा
            दुनिया में नहीं शहद कोई इससे मुसफ्फा (साफ)।
            फूलों की तरह अपनी किताबों को समझना,
            चसका हो अगर तुमको भी कुछ इल्म के रस का।’
    आज शिक्षा का, साक्षरता का प्रचार-प्रसार हो रहा है, यह भी इकबाल का सपना था, जो साकार हो रहा है। ‘परिन्दे की फरियाद’ रचना के इस बंद में गुलामी का दर्द बयान होता है-
            ‘आता है याद मुझको गुजरा हुआ जमाना,
            वे बाग की बहारें, वो सबका चहचहाना।
            आजादियां कहां अब वो अपने घोंसले की
            अपनी खुशी से आना, अपनी    खुशी से जाना।’
    भारत के गौरव को दर्शाते हुए उन्होंने लिखा-
            ‘चिश्ति ने जिस जमीं पे पैगामे हक (सच, खुदा) सुनाया,
            नानक ने जिस चमन में वहदत (एकता) का गीत गाया।
            तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया,
            मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है।’
    धार्मिक एकता की चाहत को प्रकट करती ‘नया शिवालय’ रचना का ये बंद है-
            ‘आ गैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें,
            बिछड़ों को फिर मिला दें, नक्षे दुई मिटा दें।
            सूनी पड़ी हुई है, मुद्दत से दिल की बस्ती,
            आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें।’
    इकबाल की कालजयी पंक्तियां ‘मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना’ तब सार्थक हो जाती हैं, जब देशवासी समय-समय पर आपसी भाईचारे की मिसाल देते हैं। जब प्राकृतिक प्रकोपों के समय सारे भेद-भाव भूलकर सब भारतीय हो जाते हैं। जब प्रेम के गुलाल और स्नेह के रंगों से भीगते हैं। ईद की सिवैयों से मुंह मीठा करते हैं। जब विधर्मी पड़ौसी के सुख-दुख के साथी होते हैं। जब हजारों-हजार मुस्लिम वाहन चालक हिंदू यात्रियों को तीर्थ यात्रा करवाते हैं और हिंदू भी अपने-अपने स्तर पर हज करने में उनकी मदद करते हैं।
    यही वे जीवन मूल्य हैं जो भारत की सामासिक संस्कृति के प्रतीक हैं और जिनका स्वप्न आरम्भ में इकबाल ने देखा था।
    दुर्गा और गणेशजी की मूर्ति बनाने से लेकर राखी के बंधन बनाने की छोटी सी प्रक्रिया तक हिंदू मुस्लिमों को एक पवित्र रेशमी डोर के बंधन में बांधे है। लाख की चूडि़यां बनाते हजारों-हजार मुस्लिम स्त्रियों के हाथ व दिल हिंदू स्त्रियों के अखंड सौभाग्य की कामना करते हैं। इस देश की सांस्कृतिक परम्पराओं ने आज भी सबको एक सूत्र में बांध रखा है। इकबाल भी इसी के पैरोकार रहे हैं।
    धार्मिक एकता के साथ उनकी शायरी में दूसरे धर्मों का आदर भी दिखाई देता है, जो भारत की सामासिक संस्कृति में उनके योगदान को पुष्ट करता है-
            ‘इस देश में हुए हैं हजारों मलक सरिश्त (फरिश्ते जैसे),
            मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामे हिंद।
            है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज़
            अहले नज़र समझते हैं उसको इमामे (मुखिया) हिंद।’
    इकबाल की रचनाओं से उस काल में भारत की सामासिक संस्कृति को बल मिला था। मगर आज भी जबकि भारत में साम्प्रदायिक संघर्ष कभी भी उन्माद की शक्ल ले लेते हैं, इकबाल की शायरी, उनके तराने सामयिक हो जाते हैं। इल्म का महत्व उन्होंने उस काल में बताया था आज भी स्थिति वही है। आखिर इल्म ही रस ही व्यक्ति को हर परिस्थिति में मददगार हो सकता है।
    आज भारतीय समाज पर विदेशी संस्कृति इस तरह हावी हो गई है कि हीरे-मोती और पत्थर में भेद करने की विवेक दृष्टि खो गई है, चुंधिया गई है। इकबाल ने यूरोप में रहने के दिनों में यूरोपवासियों के खोखले हृदय और आत्मा को महसूस करके निष्कर्ष निकाला था कि आंख बंद करके उनकी नकल करने से विनाश ही होगा। विवेकानंद ने भी चेताया था ‘हमें पश्चिम का अंधानुकरण न करके विवेक से काम लेना होगा। उनका अमृत हमारे लिए विष भी हो सकता है।’
और इकबाल का लोकप्रिय तराना ए हिंद भी यही कहता है-
            ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।’
(मध्यप्रदेश के शिवपुरी में भारत की सामासिक संस्कृति और इकबाल विषय पर  व्याख्यान )
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                                              सोचा न था कि शिवपुरी इतना खूबसूरत होगा।



   

2 टिप्‍पणियां:

  1. इकबाल उम्दा शायर थे, परन्तु विभाजन के वक्त पद पाने की लालसा में उन्होने भारत छोड़ दिया और वहां जाकर अल्लामा हो गए। खैर साहित्य की कोई भौगौलिक सीमाएं नहीं होती। आपको शोध परक आलेख के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।

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  2. मीनाक्षी जी , मैंने कही पढ़ा है कि " सारे जहां से अच्छा .." को भी वन्दे मातरम के साथ ही राष्ट्रगीत का गौरव दिया गया है . सचमुच इस गीत पर और इसके अमर गीतकार पर हमें गर्व है . आपने यहाँ बहुत दिनों बाद लिखा है लेकिन बहुत ही उपयोगी व शोध परक है . नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ .

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