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प्रकाशक - सामयिक प्रकाशन, दिल्ली |
मंगलवार, 20 मार्च 2018
गुरुवार, 10 दिसंबर 2015
सिंहस्थ, उज्जैन, उपन्यास "नतोहम्", मीनाक्षी स्वामी
Meenakshi Swami "Natoham" Novel
"नतोहम्" उपन्यास {मीनाक्षी स्वामी} में सिंहस्थ, उज्जैन के साथ भारतीय संस्कृति का रेखांकन
लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकार मीनाक्षी स्वामी का बहुचर्चित उपन्यास ‘नतोऽहं’ भारत भूमि के वैभवशाली अतीत और वर्तमान गौरव के सम्मुख विश्व के नतमस्तक होने का साक्षी है। यह भारतीय संस्कृति की बाह्य जगत से आंतरिक जगत की विस्मयकारी यात्रा करवाने की सामर्थ्य को दर्शाता है।
साहित्य अकादमी म.प्र. द्वारा अखिल भारतीय वीरसिंह देव पुरस्कार से सम्मानित व अटलबिहारी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के पाठ्यक्रम में शामिल यह उपन्यास भारत की समृध्द, गौरवशाली और लोक कल्याणकारी सांस्कृतिक विरासत को समर्पित है।
भारतीय संस्कृति के विराट वैभव के दर्शन होते हैं-सांस्कृतिक नगरी उज्जयिनी में बारह वर्षों में होने वाले सिंहस्थ के विश्वस्तरीय आयोजन में। उज्जैन का केन्द्र शिप्रा है। इसके किनारे होने वाले सिंहस्थ में देश भर के आध्यात्मिक रहस्य और सिध्दियां एकजुट हो जाती हैं। इन्हें देखने, जानने को विश्व भर के जिज्ञासु अपना दृष्टिकोण लिए यहां एकत्र होते हैं। तब इस पवित्र धरती पर मन-प्राण में उपजने वाले सूक्ष्मतम भावों की सशक्त अभिव्यक्ति है यह उपन्यास।
इसमें मंत्रमुग्ध करने वाली भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म के सभी पहलुओं पर वैज्ञानिक चिंतन है, भारतीय अध्यात्म के विभिन्न पहलुओं को खरेपन के साथ उकेरा गया है।
उज्जयिनी अनवरत सांस्कृतिक प्रवाह की साक्षी है। यह केवल धर्म नहीं, समूची संस्कृति है, जिसमें कलाएं हैं, साहित्य है, ज्ञान है, विज्ञान है, आस्था है, परम्परा है और भी बहुत कुछ है। यात्रा वृतांत शैली के इस उपन्यास में उज्जैन के बहाने भारतीय दर्शन, परम्पराओं और संस्कृति की खोज है जो सुदूर विदेशियों को भी आकर्षित करती है। उज्जैन के लोक जीवन की झांकी के साथ भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं का सतत आख्यान भी है।
उपन्यास के विलक्षण कथा संसार को कुशल लेखिका ने अपनी लेखनी के स्पर्श से अनन्य बना दिया है। नायक एल्विस के साथ पाठक शिप्रा के प्रवाह में प्रवाहित होता है, डुबकी लगाता है।
यह उपन्यास ‘नतोऽहं’ तथाकथित आधुनिकता से आक्रांत भारतीय जनमानस को अपनी जड़ों की ओर आकृष्ट करता है। भारतीय संस्कृति व अध्यात्म की खोज में रुचि रखनेवाले पाठकों के लिए यह अप्रतिम उपहार है।
प्राप्ति स्थान
अमरसत्य प्रकाशन
किताबघर प्रकाशन का उपक्रम
109, ब्लाक बी, प्रीत विहार
दिल्ली 110092
फोन 011- 22050766
e mail : amarsatyaprakashan@gmail.com
मूल्य चार सौ रुपए मात्र
उपन्यासकार परिचय

डा. मीनाक्षी स्वामी
हिंदी की लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकार
चर्चित कृतियां - भूभल, नतोहम् (उपन्यास), अच्छा हुआ मुझे शकील से प्यार नहीं हुआ, धरती की डिबिया (कहानी संग्रह), लालाजी ने पकड़े कान (किशोर उपन्यास), कटघरे में पीडि़त, अस्मिता की अग्निपरीक्षा (स्त्री विमर्श), भारत में संवैधानिक समन्वय और व्यवहारिक विघटन, पुलिस और समाज (समाज विमर्श) आदि चालीस पुस्तकें।
प्रतिष्ठित पुरस्कार सम्मान - भारत सरकार, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा तीस राष्ट्रीय पुरस्कार (हर विधा में हर वर्ग के लिए)। इनमें उल्लेखनीय हैं-केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय द्वारा फिल्म स्क्रिप्ट पर राष्ट्रीय पुरस्कार, केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा पं. गोविन्दवल्लभ पंत पुरस्कार, सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, संसदीय कार्य मंत्रालय द्वारा पं. मोतीलाल नेहरू पुरस्कार, मध्यप्रदेश विधानसभा द्वारा डा. भीमराव आम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार, मध्यप्रदेश जनसम्पर्क विभाग द्वारा स्वर्ण जयंती कहानी पुरस्कार, आकाशवाणी, नई दिल्ली द्वारा रूपक लेखन का राष्ट्रीय पुरस्कार, एन.सी.ई.आर.टी.,नई दिल्ली द्वारा बाल साहित्य व चिल्ड्रन्स बुक ट्स्ट द्वारा किशोर साहित्य के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार, महामहिम राज्यपाल मध्यप्रदेश तथा सहस्त्राब्दि विश्व हिंदी सम्मेलन में उत्कृष्ट लेखकीय योगदान के लिए सम्मानित, साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश द्वारा उपन्यास ‘भूभल’ पर बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार, साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश द्वारा उपन्यास ‘नतोहम्’ पर अखिल भारतीय वीरसिंह देव पुरस्कार।
विशेष- प्रसिध्द कहानी ‘धरती की डिबिया’ गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार के एम.ए. पाठ्यक्रम में।
उपन्यास ‘नतोहम्’ अटलबिहारी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के स्नातक पाठ्यक्रम में।
आपकी कई पुस्तकों का विभिन्न भारतीय भाषाओं व अंग्रेजी में अनुवाद।
सम्प्रति-प्राध्यापक-समाजशास्त्र, मध्यप्रदेश शासन.
सम्पर्क- सी.एच.78 एच.आय.जी. दीनदयाल नगर, सुखलिया, इंदौर मध्यप्रदेश भारत 452010
फोन- 0731-2557689.
meenaksheeswami@gmail.com
"नतोहम्" उपन्यास {मीनाक्षी स्वामी} में सिंहस्थ, उज्जैन के साथ भारतीय संस्कृति का रेखांकन
लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकार मीनाक्षी स्वामी का बहुचर्चित उपन्यास ‘नतोऽहं’ भारत भूमि के वैभवशाली अतीत और वर्तमान गौरव के सम्मुख विश्व के नतमस्तक होने का साक्षी है। यह भारतीय संस्कृति की बाह्य जगत से आंतरिक जगत की विस्मयकारी यात्रा करवाने की सामर्थ्य को दर्शाता है।
साहित्य अकादमी म.प्र. द्वारा अखिल भारतीय वीरसिंह देव पुरस्कार से सम्मानित व अटलबिहारी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के पाठ्यक्रम में शामिल यह उपन्यास भारत की समृध्द, गौरवशाली और लोक कल्याणकारी सांस्कृतिक विरासत को समर्पित है।
भारतीय संस्कृति के विराट वैभव के दर्शन होते हैं-सांस्कृतिक नगरी उज्जयिनी में बारह वर्षों में होने वाले सिंहस्थ के विश्वस्तरीय आयोजन में। उज्जैन का केन्द्र शिप्रा है। इसके किनारे होने वाले सिंहस्थ में देश भर के आध्यात्मिक रहस्य और सिध्दियां एकजुट हो जाती हैं। इन्हें देखने, जानने को विश्व भर के जिज्ञासु अपना दृष्टिकोण लिए यहां एकत्र होते हैं। तब इस पवित्र धरती पर मन-प्राण में उपजने वाले सूक्ष्मतम भावों की सशक्त अभिव्यक्ति है यह उपन्यास।
इसमें मंत्रमुग्ध करने वाली भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म के सभी पहलुओं पर वैज्ञानिक चिंतन है, भारतीय अध्यात्म के विभिन्न पहलुओं को खरेपन के साथ उकेरा गया है।
उज्जयिनी अनवरत सांस्कृतिक प्रवाह की साक्षी है। यह केवल धर्म नहीं, समूची संस्कृति है, जिसमें कलाएं हैं, साहित्य है, ज्ञान है, विज्ञान है, आस्था है, परम्परा है और भी बहुत कुछ है। यात्रा वृतांत शैली के इस उपन्यास में उज्जैन के बहाने भारतीय दर्शन, परम्पराओं और संस्कृति की खोज है जो सुदूर विदेशियों को भी आकर्षित करती है। उज्जैन के लोक जीवन की झांकी के साथ भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं का सतत आख्यान भी है।
उपन्यास के विलक्षण कथा संसार को कुशल लेखिका ने अपनी लेखनी के स्पर्श से अनन्य बना दिया है। नायक एल्विस के साथ पाठक शिप्रा के प्रवाह में प्रवाहित होता है, डुबकी लगाता है।
यह उपन्यास ‘नतोऽहं’ तथाकथित आधुनिकता से आक्रांत भारतीय जनमानस को अपनी जड़ों की ओर आकृष्ट करता है। भारतीय संस्कृति व अध्यात्म की खोज में रुचि रखनेवाले पाठकों के लिए यह अप्रतिम उपहार है।
प्राप्ति स्थान
अमरसत्य प्रकाशन
किताबघर प्रकाशन का उपक्रम
109, ब्लाक बी, प्रीत विहार
दिल्ली 110092
फोन 011- 22050766
e mail : amarsatyaprakashan@gmail.com
मूल्य चार सौ रुपए मात्र

डा. मीनाक्षी स्वामी
हिंदी की लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकार
चर्चित कृतियां - भूभल, नतोहम् (उपन्यास), अच्छा हुआ मुझे शकील से प्यार नहीं हुआ, धरती की डिबिया (कहानी संग्रह), लालाजी ने पकड़े कान (किशोर उपन्यास), कटघरे में पीडि़त, अस्मिता की अग्निपरीक्षा (स्त्री विमर्श), भारत में संवैधानिक समन्वय और व्यवहारिक विघटन, पुलिस और समाज (समाज विमर्श) आदि चालीस पुस्तकें।
प्रतिष्ठित पुरस्कार सम्मान - भारत सरकार, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा तीस राष्ट्रीय पुरस्कार (हर विधा में हर वर्ग के लिए)। इनमें उल्लेखनीय हैं-केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय द्वारा फिल्म स्क्रिप्ट पर राष्ट्रीय पुरस्कार, केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा पं. गोविन्दवल्लभ पंत पुरस्कार, सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, संसदीय कार्य मंत्रालय द्वारा पं. मोतीलाल नेहरू पुरस्कार, मध्यप्रदेश विधानसभा द्वारा डा. भीमराव आम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार, मध्यप्रदेश जनसम्पर्क विभाग द्वारा स्वर्ण जयंती कहानी पुरस्कार, आकाशवाणी, नई दिल्ली द्वारा रूपक लेखन का राष्ट्रीय पुरस्कार, एन.सी.ई.आर.टी.,नई दिल्ली द्वारा बाल साहित्य व चिल्ड्रन्स बुक ट्स्ट द्वारा किशोर साहित्य के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार, महामहिम राज्यपाल मध्यप्रदेश तथा सहस्त्राब्दि विश्व हिंदी सम्मेलन में उत्कृष्ट लेखकीय योगदान के लिए सम्मानित, साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश द्वारा उपन्यास ‘भूभल’ पर बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार, साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश द्वारा उपन्यास ‘नतोहम्’ पर अखिल भारतीय वीरसिंह देव पुरस्कार।
विशेष- प्रसिध्द कहानी ‘धरती की डिबिया’ गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार के एम.ए. पाठ्यक्रम में।
उपन्यास ‘नतोहम्’ अटलबिहारी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के स्नातक पाठ्यक्रम में।
आपकी कई पुस्तकों का विभिन्न भारतीय भाषाओं व अंग्रेजी में अनुवाद।
सम्प्रति-प्राध्यापक-समाजशास्त्र, मध्यप्रदेश शासन.
सम्पर्क- सी.एच.78 एच.आय.जी. दीनदयाल नगर, सुखलिया, इंदौर मध्यप्रदेश भारत 452010
फोन- 0731-2557689.
meenaksheeswami@gmail.com
रविवार, 25 अक्तूबर 2015
Meenakshi Swami मीनाक्षी स्वामी - अटलबिहारी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के पाठ्यक्रम में "नतोहम्" उपन्यास
भारतीय संस्कृति के विराट वैभव का अनावरण होता है-सांस्कृतिक नगरी उज्जयिनी में बारह वर्षों में एक बार होने वाले सिंहस्थ जैसे विश्वस्तरीय आयोजन में। यहां ऊर्जा का विस्तार और आध्यात्मिकता का संगम होता है। यह संगम किसने किया? दूर-दूर तक बसे मानव को मानव से जोड़ने का यह यत्न कैसे, कब और किसने किया? वर्षों बीत जाने पर भी श्रध्दा और विश्वास ज्यों का त्यों अडिग कैसे रह जाता है? यह जानने की उत्सुकता है यह उपन्यास।
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मेरा उपन्यास "नतोहम्" अटलबिहारी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल होना निश्चय ही गौरव की बात है। |
यही कामना है।
मंगलवार, 10 मार्च 2015
मीनाक्षी स्वामी : अस्मिता की अग्निपरीक्षाः मराठी अनुवाद : स्त्री विमर्श
मेरे पास कुछ साल पहले एक पत्र आया था।
एक महिला ने मेरी एक किताब पढकर उसका मराठी अनुवाद करने की अनुमति चाही थी।
साथ में टिकिट लगा पता लिखा लिफाफा भी अनुवाद की अनुमति के लिए रखा था।
ऐसी पाठिका के लिए मेरा मन सम्मान से भर गया। इन्होंने पत्र में लिखा था कि इन्होंने पूरी किताब पढी । इन्हें अच्छी लगी।
मराठी भाषी पाठकों तक इस किताब को पहुंचाना जरूरी है इसीलिए अनुवाद करने की इनकी इच्छा थी।
इन्होंने यह भी लिखा था कि ये व्यवसायिक तौर पर अनुवादक नहीं हैं पर इस किताब का करना चाहती हैं।
मेरी वह किताब नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई थी। सो वह पत्र मैंने वैसा का वैसा नेशनल बुक ट्रस्ट को भेज दिया।
हाल ही में मेरे पास मराठी अनुदित मेरी किताब प्रकाशित होकर आई है।
किताब है अस्मिता की अग्निपरीक्षा और अनुवाद किया है अनिला फडनवीस जी ने।
सच में अनिला जी बधाई की पात्र हैं।
मंगलवार, 30 दिसंबर 2014
डा. मीनाक्षी स्वामी - भारत की सामासिक संस्कृति और अल्लामा इकबाल
राष्ट्रकवि दिनकर ने इकबाल के लिए कहा था ‘इकबाल की कविताओं से, भारत की सामासिक संस्कृति को बल मिला था।’
‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलसितां हमारा’ जैसी कालजयी और भारत की सामासिक संस्कृति को बल देने वाली इकबाल की यह शायरी आज भी हिंदुस्तान की जनता के दिलों पर राज कर रही है।
इकबाल से पहले थोड़ी सी चर्चा संस्कृति पर। संस्कृति क्या है?
संस्कृति किसी भी राष्ट्र या देश की वे उपलब्धियां हैं, जो उसने सदियों से अर्जित की होती हैं, जिनसे उसके इतिहास, समाज, राजनीति, आर्थिक, प्राकृतिक परिवेश, आचार विचार, ज्ञान विज्ञान, दार्शनिक विचारधाराओं, धर्म, लोक कलाओं और जीवन आदि के बारे में पता चलता है। संस्कृति का सम्बंध जहां मानव के शारिरीक, मानसिक, बौध्दिक शक्तियों के विकास के साथ है, वहीं धर्म, कला, दर्षन और साहित्य भी इसके अभिन्न अंग हैं। यह किसी भी देश की आत्मा और प्रेरणा स्त्रोत है। संस्कृति को राष्ट्रीयता से अलग नहीं किया जा सकता है। संस्कृति मानव समाज के संस्कारों का परिष्कार और परिमार्जन है। यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है। मनुष्य के लिए जो भी मंगलकारी है, वह संस्कृति का अंग है।
और अब बात भारत की सामासिक संस्कृति की।
यह तो सभी जानते हैं, स्वीकारते हैं कि भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति में से है, जिसने युगों-युगों तक मानवता को मार्गदर्शन दिया। भारतीय संस्कृति मानवीय मूल्यों के सबसे अधिक निकट है क्योंकि इसमें हजारों वर्षों के सामाजिक अनुभवों का समावेश है। भारतीय संस्कृति का मूल आधार धार्मिक और आध्यात्मिक रहा है। यह गंगा के प्रबल प्रवाह की तरह है जिसमें अनेक विदेशी संस्कृतियां आई और सहायक नदियों की तरह विलीन हो गई। अनेक उतार-चढ़ाव, संकटों में भी भारतीय संस्कृति की अस्मिता कायम रही है।
यही कारण है कि विश्व की दूसरी समकालीन संस्कृतियां बगैर कोई चिन्ह छोड़े काल की धारा में समाहित हो गई। भारतीय संस्कृति समयानुसार थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ आज भी स्थिर है।
अल्लामा मोहम्मद इकबाल ने भारतीय संस्कृति की इसी महिमा को बताते हुए कहा था
‘यूनानो मिस्त्र रोमां सब मिट गए जहां से,
बाकी मगर है अब तक, नामो निशां हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहां हमारा।’
इसी प्रकार उनकी रचनाएं ‘नया शिवालय’, ‘तराना ए हिंद’, तस्वीरे दर्द आदि भी भारत की सामासिक संस्कृति के समर्थन में हैं।
इकबाल का जन्म 1873 में और मृत्यु 1938 में हुई। उनके दादा सहज सप्रू हिंदू काश्मीरी पंडित थे, जो बाद में सियालकोट आ गए। शुरूआती शिक्षा सियालकोट में लेने के बाद लाहौर से उन्होंने एम.ए. किया, केम्ब्रिज में दर्षन का अध्ययन किया और म्युनिख से डाक्टरेट की उपाधि ली। डाक्टरेट का विषय ईरानी रहस्यवाद था। 1908 में वे भारत लौटे और लाहौर में बेरिस्टरी शुरू की। मगर उनका मन कविता और दर्शन में ही रमा। लाहौर में उन दिनों मुशायरों की धूम मची हुई थी। इकबाल ने भी उनमें शामिल होकर अपना कलाम सुनाना शुरू किया और शोहरत की बुलंदियां छूने लगे।
इस्लाम की जागृति पर उनकी श्रध्दा जरूर थी पर उनके विचारों में राष्ट्रीयता भरपूर थी। वे हिंदू मुस्लिम एकता के हामी और भारतीय स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। ‘बांगेदरा’ में इस्लाम के साथ हिंदू और सिक्ख मत के प्रति भी आदर के सशक्त भाव झलकते हैं। उनकी राम और नानक पर लिखी कविताएं भारत की सामासिक संस्कृति के समर्थन का प्रमाण हैं। बांगेदरा राष्ट्रीय काव्य है। उसकी हर पंक्ति में राष्ट्रीय एकता के लिए बेचैनी दिखाई देती है।
‘नया शिवालय’ के भाव बहुत ही तेजस्वी और पवित्र हैं। ये उस बेचैन कवि के भाव हैं जो इंसान से कहना चाहत हैं कि तुम्हारा आधार वह मिट्टी है जिस पर मंदिर मस्जिद खड़े हैं और यह मिट्टी मंदिर मस्जिद दोनों से बढ़कर पवित्र है।
वे लिखते हैं ‘मिट्टी की मूरतों समझा है तू, खुदा है।
खाके वतन का मुझको हर जर्रा देखता है।’
वास्तव में मातृभूमि सभी धर्मों से ऊपर है।
तस्वीरे दर्द में उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता की प्रतिज्ञा की थी-
‘पिरोना एक ही तस्बीह में इन बिखरे दानों को,
जो मुश्किल है तो इस मुश्किल को आसां करके छोड़ूंगा।’
इकबाल ने यूरोप में रहते हुए सांस्कृतिक विचार का एक खाका तैयार किया था। वहां उन्होंने तीन बातें देखी, एक तो यह कि यूरोपवासी उत्साही और क्रियाशील हैं। जहां उन्हें आगे बढ़ने में बाधा दिखती है, निर्मूल कर देते हैं। दूसरी कि वे अवसरों का उपयोग करके आगे बढ़ जाते हैं। निरंतर प्रगति करते हैं। तीसरी जो बात देखी, वह उन्हें ठीक नहीं लगी कि वैज्ञानिक प्रगति, सुख भोग के अनेक साधनों के बाद भी उनका हृदय खोखला और आत्मा रिक्त थी।
इस भयानक पक्ष को देखकर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आंख मूंदकर यूरोप की नकल करने से विनाश ही होगा।
इन यूरोपीय सांस्कृतिक अनुभवों का साया उनकी कविता पर भी पड़ा। उन्होंने अपनी कविताओं में मनुष्य को कर्मठ बनने और बाधाओं को कुचलकर असंभव लक्ष्य पाने की प्रेरणा दी।
बाले जिबराल में वे कहते हैं ‘सितारों से आगे जहां और भी हैं।
तू शाहीं है परवाज है काम तेरा।
तेरे सामने आसमां और भी हैं।’
इसी तरह एक बंद है-
‘खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।’
वे जीवन में सतत क्रियाषीलता की प्रेरणा देते रहे। बाले जिबराल में ही-
‘नहीं साहिल तेरी किस्मत में अय मौज,
उमड़कर जिस तरफ चाहे, निकल जा।’
खतरों से घबराने को इकबाल ने सबसे बड़ी पराजय माना और नौजवानों को खतरों से लड़ने के लिए प्रेरित किया-
‘खतरपसंद तबियत को साजगार नहीं
वे गुलसितां कि जहां घात में न हो सैयाद।
मुझे सजा के लिए भी पसंद नहीं वो आग,
कि जिसका शोला न हो तुन्दो-सरकशो-बेबाक।’
(तेज, बागी, निडर)
दरअसल शायरी में इकबाल का कोई मुकाबला ही नहीं था। उनकी शायरी का जब अंग्रेजी में अनुवाद हुआ तो उनकी ख्याति इंग्लैंड तक पहुंच गई। उससे प्रभाति होकर जार्ज पंचम ने उन्हें सर की उपाधि दी। बाद में उनकी शायरी का यूरोप की दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ।
इकबाल की जुबान ही शायरी है। जो कहा वही शेर हो गया। राम और नानक पर लिखने के साथ ही उन्होंने धार्मिक सौहार्द के लिए शिवाला जैसी रचनाएं लिखी। आजादी और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत रचनाएं लिखी। बच्चों को प्रेरणा दी।
शिक्षा को भी उन्होंने अपनी शायरी में महत्वपूर्ण बताया। ‘शहद की मक्खी’ रचना में वे किताबें पढ़ने की प्रेरणा भी देते हैं-
‘रखते हो अगर होश तो इस बात को समझना।
तुम शहद की मक्खी की तरह इल्म को ढूंढो।
ये इल्म भी एक शहद है और शहद भी ऐसा
दुनिया में नहीं शहद कोई इससे मुसफ्फा (साफ)।
फूलों की तरह अपनी किताबों को समझना,
चसका हो अगर तुमको भी कुछ इल्म के रस का।’
आज शिक्षा का, साक्षरता का प्रचार-प्रसार हो रहा है, यह भी इकबाल का सपना था, जो साकार हो रहा है। ‘परिन्दे की फरियाद’ रचना के इस बंद में गुलामी का दर्द बयान होता है-
‘आता है याद मुझको गुजरा हुआ जमाना,
वे बाग की बहारें, वो सबका चहचहाना।
आजादियां कहां अब वो अपने घोंसले की
अपनी खुशी से आना, अपनी खुशी से जाना।’
भारत के गौरव को दर्शाते हुए उन्होंने लिखा-
‘चिश्ति ने जिस जमीं पे पैगामे हक (सच, खुदा) सुनाया,
नानक ने जिस चमन में वहदत (एकता) का गीत गाया।
तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है।’
धार्मिक एकता की चाहत को प्रकट करती ‘नया शिवालय’ रचना का ये बंद है-
‘आ गैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें,
बिछड़ों को फिर मिला दें, नक्षे दुई मिटा दें।
सूनी पड़ी हुई है, मुद्दत से दिल की बस्ती,
आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें।’
इकबाल की कालजयी पंक्तियां ‘मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना’ तब सार्थक हो जाती हैं, जब देशवासी समय-समय पर आपसी भाईचारे की मिसाल देते हैं। जब प्राकृतिक प्रकोपों के समय सारे भेद-भाव भूलकर सब भारतीय हो जाते हैं। जब प्रेम के गुलाल और स्नेह के रंगों से भीगते हैं। ईद की सिवैयों से मुंह मीठा करते हैं। जब विधर्मी पड़ौसी के सुख-दुख के साथी होते हैं। जब हजारों-हजार मुस्लिम वाहन चालक हिंदू यात्रियों को तीर्थ यात्रा करवाते हैं और हिंदू भी अपने-अपने स्तर पर हज करने में उनकी मदद करते हैं।
यही वे जीवन मूल्य हैं जो भारत की सामासिक संस्कृति के प्रतीक हैं और जिनका स्वप्न आरम्भ में इकबाल ने देखा था।
दुर्गा और गणेशजी की मूर्ति बनाने से लेकर राखी के बंधन बनाने की छोटी सी प्रक्रिया तक हिंदू मुस्लिमों को एक पवित्र रेशमी डोर के बंधन में बांधे है। लाख की चूडि़यां बनाते हजारों-हजार मुस्लिम स्त्रियों के हाथ व दिल हिंदू स्त्रियों के अखंड सौभाग्य की कामना करते हैं। इस देश की सांस्कृतिक परम्पराओं ने आज भी सबको एक सूत्र में बांध रखा है। इकबाल भी इसी के पैरोकार रहे हैं।
धार्मिक एकता के साथ उनकी शायरी में दूसरे धर्मों का आदर भी दिखाई देता है, जो भारत की सामासिक संस्कृति में उनके योगदान को पुष्ट करता है-
‘इस देश में हुए हैं हजारों मलक सरिश्त (फरिश्ते जैसे),
मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामे हिंद।
है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज़
अहले नज़र समझते हैं उसको इमामे (मुखिया) हिंद।’
इकबाल की रचनाओं से उस काल में भारत की सामासिक संस्कृति को बल मिला था। मगर आज भी जबकि भारत में साम्प्रदायिक संघर्ष कभी भी उन्माद की शक्ल ले लेते हैं, इकबाल की शायरी, उनके तराने सामयिक हो जाते हैं। इल्म का महत्व उन्होंने उस काल में बताया था आज भी स्थिति वही है। आखिर इल्म ही रस ही व्यक्ति को हर परिस्थिति में मददगार हो सकता है।
आज भारतीय समाज पर विदेशी संस्कृति इस तरह हावी हो गई है कि हीरे-मोती और पत्थर में भेद करने की विवेक दृष्टि खो गई है, चुंधिया गई है। इकबाल ने यूरोप में रहने के दिनों में यूरोपवासियों के खोखले हृदय और आत्मा को महसूस करके निष्कर्ष निकाला था कि आंख बंद करके उनकी नकल करने से विनाश ही होगा। विवेकानंद ने भी चेताया था ‘हमें पश्चिम का अंधानुकरण न करके विवेक से काम लेना होगा। उनका अमृत हमारे लिए विष भी हो सकता है।’
और इकबाल का लोकप्रिय तराना ए हिंद भी यही कहता है-
‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।’
(मध्यप्रदेश के शिवपुरी में भारत की सामासिक संस्कृति और इकबाल विषय पर व्याख्यान )
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सोचा न था कि शिवपुरी इतना खूबसूरत होगा।
‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलसितां हमारा’ जैसी कालजयी और भारत की सामासिक संस्कृति को बल देने वाली इकबाल की यह शायरी आज भी हिंदुस्तान की जनता के दिलों पर राज कर रही है।
इकबाल से पहले थोड़ी सी चर्चा संस्कृति पर। संस्कृति क्या है?
संस्कृति किसी भी राष्ट्र या देश की वे उपलब्धियां हैं, जो उसने सदियों से अर्जित की होती हैं, जिनसे उसके इतिहास, समाज, राजनीति, आर्थिक, प्राकृतिक परिवेश, आचार विचार, ज्ञान विज्ञान, दार्शनिक विचारधाराओं, धर्म, लोक कलाओं और जीवन आदि के बारे में पता चलता है। संस्कृति का सम्बंध जहां मानव के शारिरीक, मानसिक, बौध्दिक शक्तियों के विकास के साथ है, वहीं धर्म, कला, दर्षन और साहित्य भी इसके अभिन्न अंग हैं। यह किसी भी देश की आत्मा और प्रेरणा स्त्रोत है। संस्कृति को राष्ट्रीयता से अलग नहीं किया जा सकता है। संस्कृति मानव समाज के संस्कारों का परिष्कार और परिमार्जन है। यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है। मनुष्य के लिए जो भी मंगलकारी है, वह संस्कृति का अंग है।
और अब बात भारत की सामासिक संस्कृति की।
यह तो सभी जानते हैं, स्वीकारते हैं कि भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति में से है, जिसने युगों-युगों तक मानवता को मार्गदर्शन दिया। भारतीय संस्कृति मानवीय मूल्यों के सबसे अधिक निकट है क्योंकि इसमें हजारों वर्षों के सामाजिक अनुभवों का समावेश है। भारतीय संस्कृति का मूल आधार धार्मिक और आध्यात्मिक रहा है। यह गंगा के प्रबल प्रवाह की तरह है जिसमें अनेक विदेशी संस्कृतियां आई और सहायक नदियों की तरह विलीन हो गई। अनेक उतार-चढ़ाव, संकटों में भी भारतीय संस्कृति की अस्मिता कायम रही है।
यही कारण है कि विश्व की दूसरी समकालीन संस्कृतियां बगैर कोई चिन्ह छोड़े काल की धारा में समाहित हो गई। भारतीय संस्कृति समयानुसार थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ आज भी स्थिर है।
अल्लामा मोहम्मद इकबाल ने भारतीय संस्कृति की इसी महिमा को बताते हुए कहा था
‘यूनानो मिस्त्र रोमां सब मिट गए जहां से,
बाकी मगर है अब तक, नामो निशां हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहां हमारा।’
इसी प्रकार उनकी रचनाएं ‘नया शिवालय’, ‘तराना ए हिंद’, तस्वीरे दर्द आदि भी भारत की सामासिक संस्कृति के समर्थन में हैं।
इकबाल का जन्म 1873 में और मृत्यु 1938 में हुई। उनके दादा सहज सप्रू हिंदू काश्मीरी पंडित थे, जो बाद में सियालकोट आ गए। शुरूआती शिक्षा सियालकोट में लेने के बाद लाहौर से उन्होंने एम.ए. किया, केम्ब्रिज में दर्षन का अध्ययन किया और म्युनिख से डाक्टरेट की उपाधि ली। डाक्टरेट का विषय ईरानी रहस्यवाद था। 1908 में वे भारत लौटे और लाहौर में बेरिस्टरी शुरू की। मगर उनका मन कविता और दर्शन में ही रमा। लाहौर में उन दिनों मुशायरों की धूम मची हुई थी। इकबाल ने भी उनमें शामिल होकर अपना कलाम सुनाना शुरू किया और शोहरत की बुलंदियां छूने लगे।
इस्लाम की जागृति पर उनकी श्रध्दा जरूर थी पर उनके विचारों में राष्ट्रीयता भरपूर थी। वे हिंदू मुस्लिम एकता के हामी और भारतीय स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। ‘बांगेदरा’ में इस्लाम के साथ हिंदू और सिक्ख मत के प्रति भी आदर के सशक्त भाव झलकते हैं। उनकी राम और नानक पर लिखी कविताएं भारत की सामासिक संस्कृति के समर्थन का प्रमाण हैं। बांगेदरा राष्ट्रीय काव्य है। उसकी हर पंक्ति में राष्ट्रीय एकता के लिए बेचैनी दिखाई देती है।
‘नया शिवालय’ के भाव बहुत ही तेजस्वी और पवित्र हैं। ये उस बेचैन कवि के भाव हैं जो इंसान से कहना चाहत हैं कि तुम्हारा आधार वह मिट्टी है जिस पर मंदिर मस्जिद खड़े हैं और यह मिट्टी मंदिर मस्जिद दोनों से बढ़कर पवित्र है।
वे लिखते हैं ‘मिट्टी की मूरतों समझा है तू, खुदा है।
खाके वतन का मुझको हर जर्रा देखता है।’
वास्तव में मातृभूमि सभी धर्मों से ऊपर है।
तस्वीरे दर्द में उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता की प्रतिज्ञा की थी-
‘पिरोना एक ही तस्बीह में इन बिखरे दानों को,
जो मुश्किल है तो इस मुश्किल को आसां करके छोड़ूंगा।’
इकबाल ने यूरोप में रहते हुए सांस्कृतिक विचार का एक खाका तैयार किया था। वहां उन्होंने तीन बातें देखी, एक तो यह कि यूरोपवासी उत्साही और क्रियाशील हैं। जहां उन्हें आगे बढ़ने में बाधा दिखती है, निर्मूल कर देते हैं। दूसरी कि वे अवसरों का उपयोग करके आगे बढ़ जाते हैं। निरंतर प्रगति करते हैं। तीसरी जो बात देखी, वह उन्हें ठीक नहीं लगी कि वैज्ञानिक प्रगति, सुख भोग के अनेक साधनों के बाद भी उनका हृदय खोखला और आत्मा रिक्त थी।
इस भयानक पक्ष को देखकर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आंख मूंदकर यूरोप की नकल करने से विनाश ही होगा।
इन यूरोपीय सांस्कृतिक अनुभवों का साया उनकी कविता पर भी पड़ा। उन्होंने अपनी कविताओं में मनुष्य को कर्मठ बनने और बाधाओं को कुचलकर असंभव लक्ष्य पाने की प्रेरणा दी।
बाले जिबराल में वे कहते हैं ‘सितारों से आगे जहां और भी हैं।
तू शाहीं है परवाज है काम तेरा।
तेरे सामने आसमां और भी हैं।’
इसी तरह एक बंद है-
‘खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।’
वे जीवन में सतत क्रियाषीलता की प्रेरणा देते रहे। बाले जिबराल में ही-
‘नहीं साहिल तेरी किस्मत में अय मौज,
उमड़कर जिस तरफ चाहे, निकल जा।’
खतरों से घबराने को इकबाल ने सबसे बड़ी पराजय माना और नौजवानों को खतरों से लड़ने के लिए प्रेरित किया-
‘खतरपसंद तबियत को साजगार नहीं
वे गुलसितां कि जहां घात में न हो सैयाद।
मुझे सजा के लिए भी पसंद नहीं वो आग,
कि जिसका शोला न हो तुन्दो-सरकशो-बेबाक।’
(तेज, बागी, निडर)
दरअसल शायरी में इकबाल का कोई मुकाबला ही नहीं था। उनकी शायरी का जब अंग्रेजी में अनुवाद हुआ तो उनकी ख्याति इंग्लैंड तक पहुंच गई। उससे प्रभाति होकर जार्ज पंचम ने उन्हें सर की उपाधि दी। बाद में उनकी शायरी का यूरोप की दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ।
इकबाल की जुबान ही शायरी है। जो कहा वही शेर हो गया। राम और नानक पर लिखने के साथ ही उन्होंने धार्मिक सौहार्द के लिए शिवाला जैसी रचनाएं लिखी। आजादी और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत रचनाएं लिखी। बच्चों को प्रेरणा दी।
शिक्षा को भी उन्होंने अपनी शायरी में महत्वपूर्ण बताया। ‘शहद की मक्खी’ रचना में वे किताबें पढ़ने की प्रेरणा भी देते हैं-
‘रखते हो अगर होश तो इस बात को समझना।
तुम शहद की मक्खी की तरह इल्म को ढूंढो।
ये इल्म भी एक शहद है और शहद भी ऐसा
दुनिया में नहीं शहद कोई इससे मुसफ्फा (साफ)।
फूलों की तरह अपनी किताबों को समझना,
चसका हो अगर तुमको भी कुछ इल्म के रस का।’
आज शिक्षा का, साक्षरता का प्रचार-प्रसार हो रहा है, यह भी इकबाल का सपना था, जो साकार हो रहा है। ‘परिन्दे की फरियाद’ रचना के इस बंद में गुलामी का दर्द बयान होता है-
‘आता है याद मुझको गुजरा हुआ जमाना,
वे बाग की बहारें, वो सबका चहचहाना।
आजादियां कहां अब वो अपने घोंसले की
अपनी खुशी से आना, अपनी खुशी से जाना।’
भारत के गौरव को दर्शाते हुए उन्होंने लिखा-
‘चिश्ति ने जिस जमीं पे पैगामे हक (सच, खुदा) सुनाया,
नानक ने जिस चमन में वहदत (एकता) का गीत गाया।
तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है।’
धार्मिक एकता की चाहत को प्रकट करती ‘नया शिवालय’ रचना का ये बंद है-
‘आ गैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें,
बिछड़ों को फिर मिला दें, नक्षे दुई मिटा दें।
सूनी पड़ी हुई है, मुद्दत से दिल की बस्ती,
आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें।’
इकबाल की कालजयी पंक्तियां ‘मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना’ तब सार्थक हो जाती हैं, जब देशवासी समय-समय पर आपसी भाईचारे की मिसाल देते हैं। जब प्राकृतिक प्रकोपों के समय सारे भेद-भाव भूलकर सब भारतीय हो जाते हैं। जब प्रेम के गुलाल और स्नेह के रंगों से भीगते हैं। ईद की सिवैयों से मुंह मीठा करते हैं। जब विधर्मी पड़ौसी के सुख-दुख के साथी होते हैं। जब हजारों-हजार मुस्लिम वाहन चालक हिंदू यात्रियों को तीर्थ यात्रा करवाते हैं और हिंदू भी अपने-अपने स्तर पर हज करने में उनकी मदद करते हैं।
यही वे जीवन मूल्य हैं जो भारत की सामासिक संस्कृति के प्रतीक हैं और जिनका स्वप्न आरम्भ में इकबाल ने देखा था।
दुर्गा और गणेशजी की मूर्ति बनाने से लेकर राखी के बंधन बनाने की छोटी सी प्रक्रिया तक हिंदू मुस्लिमों को एक पवित्र रेशमी डोर के बंधन में बांधे है। लाख की चूडि़यां बनाते हजारों-हजार मुस्लिम स्त्रियों के हाथ व दिल हिंदू स्त्रियों के अखंड सौभाग्य की कामना करते हैं। इस देश की सांस्कृतिक परम्पराओं ने आज भी सबको एक सूत्र में बांध रखा है। इकबाल भी इसी के पैरोकार रहे हैं।
धार्मिक एकता के साथ उनकी शायरी में दूसरे धर्मों का आदर भी दिखाई देता है, जो भारत की सामासिक संस्कृति में उनके योगदान को पुष्ट करता है-
‘इस देश में हुए हैं हजारों मलक सरिश्त (फरिश्ते जैसे),
मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामे हिंद।
है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज़
अहले नज़र समझते हैं उसको इमामे (मुखिया) हिंद।’
इकबाल की रचनाओं से उस काल में भारत की सामासिक संस्कृति को बल मिला था। मगर आज भी जबकि भारत में साम्प्रदायिक संघर्ष कभी भी उन्माद की शक्ल ले लेते हैं, इकबाल की शायरी, उनके तराने सामयिक हो जाते हैं। इल्म का महत्व उन्होंने उस काल में बताया था आज भी स्थिति वही है। आखिर इल्म ही रस ही व्यक्ति को हर परिस्थिति में मददगार हो सकता है।
आज भारतीय समाज पर विदेशी संस्कृति इस तरह हावी हो गई है कि हीरे-मोती और पत्थर में भेद करने की विवेक दृष्टि खो गई है, चुंधिया गई है। इकबाल ने यूरोप में रहने के दिनों में यूरोपवासियों के खोखले हृदय और आत्मा को महसूस करके निष्कर्ष निकाला था कि आंख बंद करके उनकी नकल करने से विनाश ही होगा। विवेकानंद ने भी चेताया था ‘हमें पश्चिम का अंधानुकरण न करके विवेक से काम लेना होगा। उनका अमृत हमारे लिए विष भी हो सकता है।’
और इकबाल का लोकप्रिय तराना ए हिंद भी यही कहता है-
‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।’
(मध्यप्रदेश के शिवपुरी में भारत की सामासिक संस्कृति और इकबाल विषय पर व्याख्यान )
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सोचा न था कि शिवपुरी इतना खूबसूरत होगा।
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