सोमवार, 7 जनवरी 2013

उपन्यास भूभल से अंश मीनाक्षी स्वामी







(मेरा उपन्यास ‘भूभल’ वर्ष 2011 में सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। आज दिल्ली गेंग रेप की घटना में जन जागरण का कानून निर्माताओं पर दबाव बन रहा है, ठीक इसी प्रकार के जन आंदोलन द्वारा कानून निर्माताओं पर दबाव और कानूनों में बदलाव का विस्तृत कथात्मक विवरण उपन्यास ‘भूभल’ में है।
इसे मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ व अखिल भारतीय विद्वत् परिषद वाराणसी द्वारा कादम्बरी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
मित्रों के आग्रह पर उपन्यास के ये अंश प्रस्तुत हैं। )

फ्लेप से

    किसी भी महिला के साथ जबरिया यौन सम्बंध वैश्विक परिदृश्य का दिल दहला देने वाला सच है। इसका सामाजिक पहलू तो कड़वा है ही, कानूनी पहलू भी स्त्री के पक्ष में खड़ा दिखाई देने के बावजूद उसे शिकार बनाने के इस खेल में अनजाने ही शामिल हो जाता है। उपन्यास इस कड़वे निर्वसन सत्य को बेबाकी से सामने रखता है।
    ‘भूभल’ अर्थात चिंगारियों से युक्त गर्म राख, निरंतर प्रज्जवलित रखने के लिए इसमें कंडा (उपला) दबा दिया जाता है। इसे जब चाहे हवा देकर फिर से लौ बनाया जा सकता है।


अपनी बात से
   
    नारी अस्मिता और स्वतंत्रता से जुड़ा अहम प्रश्न है-दैहिक स्वतंत्रता का। अपने चाहने पर वह किसी से सम्बंध बना पाती है या नहीं? इससे भी बड़ा प्रश्न है कि न चाहने पर वह इसे रोक पाती है या नहीं? मगर इस प्रश्न के उत्तर में समूचे समाज की प्रतिक्रिया मुखौटे बदलकर, एक जैसी ही होती है तो यकीन होने लगता है कि सामाजिक ढांचे और स्थितियों को ही पक्षपातपूर्ण साजिश के साथ विकसित किया गया है।
    दूसरी ओर न्याय देने को प्रतिबध्द कानून, भ्रष्ट व्यवस्था से रिसता, पुलिस की वर्दी में गुम होता, वकीलों के काले कोट में जाकर छुप जाता है। न्याय पाने को आगे बढ़ा पीडि़त ठगा और छला रह जाता है क्योंकि न्यायालय में जो मिलता है वह मात्र निर्णय होता है, न्याय नहीं। यही हकीकत है।
    प्रजातांत्रिक व्यवस्था, स्वतंत्रता और समानता के तमाम दावों के बावजूद आज भी न्यायालय पुरुषों के ही हैं। न्याय व्यवस्था भी स्त्रियों को शिकार बनाने के इस खेल में अनजाने ही षामिल है जिसके चलते स्त्री की लड़ाई इतनी दारूण और यंत्रणापूर्ण है कि उसमें हर बार विजय की संभावना टूटती ही अधिक है।
    मगर हार के डर से, जूझने दूर रहने वाला समाज ठहर जाता है। जब जूझना ही नियति है तो किसी न किसी को तो यह युध्द जारी रखना ही होगा। यथार्थ का दूसरा पहले यह भी है कि जब लड़ते अस्तित्व को बनाए रखने की अनिवार्य शर्त हो और एकमात्र विकल्प भी, तब सामूहिक आहुति फलदायी हो सकती है और सामूहिकता केवल स्त्रियों की नहीं, समूचे समाज की, जिसके सदस्य स्त्री-पुरुष दोनों हैं। दरअसल यह समस्या केवल स्त्री की नहीं समूचे समाज की है तो इसका निराकरण भी स्त्री-पुरुष दोनों को मिलकर ही करना होगा। 
    निस्संदेह यह उपन्यास उन बातों को लेकर नहीं लिखा गया है, जो आगे बढ़ते समय के साथ पीछे छूटती जा रही हैं बल्कि समय के साथ नहीं छूटने वाली उन बातों को लेकर है जिन्हें अब तक छूट जाना चाहिए था।     



उपन्यास भूभल से अंश

    कंचन इन मामलों में जमीनी आंदोलनों में भरोसा करती थी। अपने इसी सोच के चलते उसने श्रीमती चटर्जी को एक ई मेल किया। इस निवेदन के साथ कि ‘लिखा पढ़ी का अपना महत्व है मगर सामाजिक समस्याओं को सुलझाने के लिए जन आंदोलन ज्यादा कारगर होते हैं। जन शक्ति के जुड़ने से, लिखी हुई बातें ज्यादा प्रभावशाली हो पाती हैं। प्रजातंत्र में जनमत सब पर भारी है। जन जागृति से प्रभावशाली अपराधी भी दंडित हो सकते हैं। उनके हौसले पस्त हो सकते हैं। तब न्याय के लिए लड़नेवालों के मनोबल में भी वृध्दि होगी। साथ ही कंचन ने इसके लिए एक कार्य योजना का जिक्र भी अपने मेल में किया। इसके अनुसार आंदोलन के दो चरण होंगे-पहले बलात्कार कानून में संशोधन का मसौदा बनाना, दूसरे में सबको साथ लेकर उसे जन आंदोलन बनाना ताकि सरकार पर इस संशोधन का दबाव बन सके। और इस आंदोलन की खास बात यह होगी कि यह केवल स्त्रियों तक सीमित नहीं होगा। इसमें पुरुषों को भी जोड़ना होगा। विषेष महिला न्यायालय के अनुभव से मेरी राय में यह समस्या महिलाओं की लगती है, मगर इससे महिला से जुड़े पुरुष भी प्रभावित होते हैं।’
    मेल करते-करते कंचन को महसूस हुआ कि यह लड़ाई उसकी अकेली की नहीं, पूरी दुनिया की है। और जब अगले ही दिन कंचन ने अपने मेल बाक्स में राष्ट्रीय महिला आयोग का जवाब देखा तो उसका यह एहसास भरोसे में बदल गया।
    उसके विचारों से प्रभावित होकर श्रीमती चटर्जी ने लिखा था कि ‘आप संशोधित कानूनों और जन आंदोलन के लिए अपील का मसौदा तैयार करें। आपका सुझाव प्रशंसनीय है। आपके सहयोग से हम इसे कार्य रूप में बदल सकेंगें।’
    पढ़कर कंचन उत्साह से भर गई। दुनिया की प्रताड़ना, अपनों द्वारा दिए गए आघातों, सबसे ऊपर उठकर एक मसौदा तैयार करने लगी, जिसे सारे सामाजिक संगठनों को, बुध्दिजीवियों को, समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाना था। एकाग्रचित्त होकर वह अपने काम में डूबी थी।
    तभी दरवाजे की घंटी बजी।
    फिर अपनों का आघात........उनके जाने के बाद कंचन की एकाग्रता भंग हो गई। ‘क्या इस दुनिया में सारे पुरुष ऐसे ही सोचते हैं? जबरदस्ती से दूषित हुई देह क्या वास्तव में दूषित है? जोर-जबरदस्ती के मामले में कोई स्त्री मन-प्राण से तो समर्पित होती ही नहीं है। क्या दैहिक पवित्रता ही सब कुछ है? प्रश्न केवल कौमार्य का तो नहीं, आत्म विश्वास, भरोसे और जबरदस्ती का भी है। बलात्कार केवल शरीर का तो नहीं मन, प्राण और आत्मा का भी तो हुआ है, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का भी तो हुआ है।’
    कंचन का हृदय चीत्कार उठा।
    वह फिर काम में मन लगाना चाहती है, बार-बार कागज कलम उठाती है फिर मसौदा लिखने की कोशिश करती है। मगर कागज पर एक शब्द नहीं उतरता। लगता है ‘लिखूंगी तो अपनी व्यथा ही उतरेगी। मगर नहीं, अब ये व्यथा केवल मेरी नहीं हर औरत की है। हर उस औरत की, जिसके साथ कभी भी, कहीं भी जबरदस्ती हो सकती है। कोई औरत यह दावा नहीं कर सकती कि उसके साथ कभी ऐसा नहीं हो सकता। मैं हर औरत के लिए लड़ूंगी...नहीं नहीं हर औरत को साथ लेकर लड़ूंगी।’ 
    सोचते हुए कंचन के मन का झंझावत थमा।
    उसने लिखा- ‘‘यह अपील हर नागरिक के लिए है। महिलाओं के साथ दुष्कर्म सम्बंधी कानूनों में सुधार के लिए हम एक जनआंदोलन की आवष्यक्ता महसूस करते हैं ताकि सबको न्याय मिल सके। इन संशोधनों में पीडि़त स्त्री के पूर्व चरित्र पर ध्यान न देना, उसका बयान उसके घर पर रेकार्ड करने की सुविधा, बलात्कार के मामलों में आरोपी को मामले की सुनवाई पूरी होने तक जमानत न मिलना, बलात्कार की परिभाषा का दायरा व्यापक करन, समानांतर जांच एजेन्सी को मान्यता देना, मामले की प्रतिदिन सुनवाई होना......मुख्य है। कानून को ताकतवर बनाने में जनमत की सशक्त भूमिका है अतः सभी के सहयोग की जरूरत है।’’
    मणि ने इसमें जोड़ा ‘‘इसे केवल स्त्री की समस्या न मानें। स्त्री पारिवारिक ढांचे की धुरी है। उसकी समस्या से पूरा परिवार और समाज प्रभावित होता है। अतः पुरुषों से भी सहयोग का आह्वान है। कोमल और नन्हीं बूंदें जब संगठित होती हैं तो चट्टानों को भी काट देती हैं। हम सब एकजुट होकर समाज को सुंदर बनाएं।’’
    यह मसौदा उन्होंने राष्ट्रीय महिला आयोग को भेजा।
    रात को कंचन ने सपने में देखा कि ढेर सारे हाथों ने कांटेदार झाडि़यों का जंगल साफ कर दिया, वहां गुलमोहर के ढेरों पौधे उग आए। वे झूम-झूमकर गीत गाते हुए तेजी से पेड़ बन रहे हैं।
    और ऐसा ही हुआ भी, जब अध्यक्ष राष्ट्रीय महिला आयोग, नई दिल्ली के हस्ताक्षर से यह आह्वान सारे देश के समाचार पत्रों में, हर प्रांतीय भाषा में छपा, टेलीविजन के हर चेनल पर श्रीमती चटर्जी के आह्वान की रेकार्डेड सी.डी. हर लोकप्रिय कार्यक्रम के ब्रेक में दिखाई गई। इसके अलावा लगभग सभी कम्पनियों के मोबाइल पर श्रीमती चटर्जी की ओर से एस.एम.एस. भेजे गए। सारे बुध्दिजीवियों, समाजसेवी संगठनों को अलग से पत्र भी भेजे गए।
    कंचन और मणि के सुझाव पर चुनावी प्रचार अभियान की तर्ज पर यह अभियान चलाया गया। छोटी सी चिंगारी ज्वाला बनकर पूरे देश में धधक गई।
    और निश्चत दिन, निश्चित समय पर पूरे देश में, हर नगर, हर गांव, हर कस्बे में निश्चित जगह पर लोग इकट्ठे हुए। इसमें कंचन भी थी और मणि भी था। राजधानी दिल्ली सहित पूरे देश में ऐसा विशाल जनमत पहली बार ही सक्रिय हुआ था, खासकर उस समस्या के लिए जिसे केवल स्त्रियों की माना जाता था। इस आंदोलन की सर्वाधिक सफलता थी-इसमें पुरुषों की भागीदारी, यह एक विशिष्ट घटना थी।
    इस आंदोलन से पूरा देश हिल गया, राजधानी थरथराने लगी। जनमत की ताकत का प्रमाण तब मिला, जब बलात्कार कानून में संशोधन के उद्देश्य से तीन दिन के भीतर एक समिति गठित की गई।
    और ठीक एक महीने बाद ही...पीडि़त स्त्री के पूर्व चरित्र पर ध्यान देने सम्बंधी धारा को हटा दिया गया। बाकी संशोधनों पर भी विचार जारी था। यह खबर पाते ही जनमत ने दांतों तले उंगली दबा ली। इतनी ताकत है उसमें और वही अनभिज्ञ था अपनी ताकत से। राष्ट्रीय महिला आयोग ने जनमत को उसकी ताकत से परिचित कराया था। इस पूरे परिदृश्य के पीछे थी-खास तौर पर कंचन और उसके साथ मणि।
    उसी रात कंचन ने सपने में देखा? कंटीली झाडि़यों के डरावने जंगल में गुलमोहर का एक पेड़ लगा था, पेड़ से अंगारे गिरने लगे और डरावना जंगल सुलग कर राख हो गया, फिर कंचन और मणि ने गरम राख के बीच एक कंडा दबा दिया, सुलगता रहने के लिए।