बुधवार, 12 जनवरी 2011

रेल में बैठी स्त्री --- मीनाक्षी स्वामी

रेल में बैठी स्त्री                         कविता    
तेज रफ्तार दौड़ती रेल में
  बैठी स्त्री
खिड़की से देखती है
पेड़, खेत, नदी और पहाड़
पहाड़ों को चीरती
नदियों को लांघती,
जाने कितनी सदियाँ, युग
पीछे छोड़ती रेल
दौड़ती चली जाती है
स्त्री खिड़की से देखती है
मगर
वह तो रेल में ही बैठी रहती है
वहीँ की वहीँ
वैसी ही
वही डिब्बा, वही सीट,
वही कपड़े, वही बक्सा
जिसमें सपने भरकर
वह रेल में बैठी थी कभी
रेल मेँ बैठी स्त्री
बक्सा खोलती है
और देखती है सपनों को
सपने बिल्कुल वैसे ही हैं
तरोताजा और अनछुऐ
जैसे सहेजकर उसने रखे थे कभी
स्त्री फिर बक्सा बंद कर देती है
और सहेज लेती है
सारे के सारे सपने
रेल दौड़ती रहती है
पेड़, नदी, झरने
सब लांघती दौड़ती है रेल
पीछे छूटती जाती हैं सदियाँ
और रेल के भीतर बैठी स्त्री के सपने
वैसे ही बक्से में बंद रहते हैं
जैसे उसने
सहेजकर
रखे थे कभी ।

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

ब्लॉग पर आने की वजह --- मीनाक्षी स्वामी

देर से ही सही पर ब्लॉग पर आ गई हू . वेसे विचार और कला अपने विस्तार के लिए तकनीक पर निर्भर होती हें इसीलिए वैश्विक स्तर पर विचारो के आदान प्रदान के लिए ये बेहतरीन माध्यम के रूप में ब्लॉग जगत में आकर भीतर से समर्थ महसूस कर रही हू . आते ही जिस तरह से तुरंत स्वागत की प्रतिक्रिया मिली उससे बहुत उत्साहित भी हू.

अपने ब्लॉग का नाम भूभल रखा है . भूभल  याने चिनगारियो से युक्त गर्म राख. हर रचनाकार के भीतर  एसी   ही आग होती है . जो विरोधाभासो पर जब  प्रतिक्रिया करती है तो रचना का जन्म  होता है. और भूभल  मेरे ताजातरीन प्रकाशित उपन्यास का भी नाम है.