रेल में बैठी स्त्री कविता
तेज रफ्तार दौड़ती रेल में
बैठी स्त्री
खिड़की से देखती है
पेड़, खेत, नदी और पहाड़
पहाड़ों को चीरती
नदियों को लांघती,
जाने कितनी सदियाँ, युग
पीछे छोड़ती रेल
दौड़ती चली जाती है
स्त्री खिड़की से देखती है
मगर
वह तो रेल में ही बैठी रहती है
वहीँ की वहीँ
वैसी ही
वही डिब्बा, वही सीट,
वही कपड़े, वही बक्सा
जिसमें सपने भरकर
वह रेल में बैठी थी कभी
रेल मेँ बैठी स्त्री
बक्सा खोलती है
और देखती है सपनों को
सपने बिल्कुल वैसे ही हैं
तरोताजा और अनछुऐ
जैसे सहेजकर उसने रखे थे कभी
स्त्री फिर बक्सा बंद कर देती है
और सहेज लेती है
सारे के सारे सपने
रेल दौड़ती रहती है
पेड़, नदी, झरने
सब लांघती दौड़ती है रेल
पीछे छूटती जाती हैं सदियाँ
और रेल के भीतर बैठी स्त्री के सपने
वैसे ही बक्से में बंद रहते हैं
जैसे उसने
सहेजकर
रखे थे कभी ।
तेज रफ्तार दौड़ती रेल में
बैठी स्त्री
खिड़की से देखती है
पेड़, खेत, नदी और पहाड़
पहाड़ों को चीरती
नदियों को लांघती,
जाने कितनी सदियाँ, युग
पीछे छोड़ती रेल
दौड़ती चली जाती है
स्त्री खिड़की से देखती है
मगर
वह तो रेल में ही बैठी रहती है
वहीँ की वहीँ
वैसी ही
वही डिब्बा, वही सीट,
वही कपड़े, वही बक्सा
जिसमें सपने भरकर
वह रेल में बैठी थी कभी
रेल मेँ बैठी स्त्री
बक्सा खोलती है
और देखती है सपनों को
सपने बिल्कुल वैसे ही हैं
तरोताजा और अनछुऐ
जैसे सहेजकर उसने रखे थे कभी
स्त्री फिर बक्सा बंद कर देती है
और सहेज लेती है
सारे के सारे सपने
रेल दौड़ती रहती है
पेड़, नदी, झरने
सब लांघती दौड़ती है रेल
पीछे छूटती जाती हैं सदियाँ
और रेल के भीतर बैठी स्त्री के सपने
वैसे ही बक्से में बंद रहते हैं
जैसे उसने
सहेजकर
रखे थे कभी ।