रविवार, 6 फ़रवरी 2011

लड़की की मुट्ठी में --- मीनाक्षी स्वामी

लड़की की मुट्ठी में   
                               
लड़की नहीं जानती
लड़की की ताकत
लड़की है नदी,
लड़की है झरना,
लड़की है पहाड़,
लड़की है पेड़,
पेड़ की डाल है लड़की
पेड़ से कटकर भी जलती है, लड़की
अलाव की आग बनकर
सुलगती है, लड़की
सुलग-सुलगकर राख नहीं होती है
सुलग-सुलगकर बनती है, लड़की
दहकता हुआ अग्निपुंज
और खाक कर देती है
समूचे डरावने जंगल को
लड़की मुट्ठी में
बंद हैं बीज
बीज सपनों के, फलों से लदे-फंदे
उंगलियों के इशारों पर
तय करती है, लड़की
हवाओं की दिशाएं
लड़की की खिलखिलाहट
लौटा लाती है बसंत

शनिवार, 29 जनवरी 2011

टिक..टिक..टिक... (कहानी) ---मीनाक्षी स्वामी

दीपशिखा की निगाह घड़ी पर पड़ी, रात के ढाई बज रहे हैं । उसे अब तक नींद नहीं आ पाई है । रात ग्यारह बजे से वह सोने के लिए लेटी है । मगर साढ़े तीन घंटों से उसकी कोशिश जारी है और सफलता अभी तक नहीं मिल सकी है । घड़ियों की लगातार चल रही टिक...टिक...रात का सन्नाटा तोड़ रही है । दीपशिखा को लग रहा है, वह इसी शोर के कारण नहीं सो पा रही है ।  एक तो इस बड़े बेडरूम में दो दीवार घड़ियां हैं और पलंग के पास इधर, बिल्कुल कान के पास...सारी घड़ियों का  शोर...उफ... टिक...टिक...टिक...टिक...उसे शोर और तेज लगा । शायद पास के कमरों में लगी घड़ियों का शोर भी उसके कानों में पड़ने लगा ।
    हर कमरे में घड़ी जरूरी है । समय को साधने के लिए । फिर टेबल घड़ी अलार्म के लिए जरूरी है । उसे याद आया बचपन में घर में केवल एक घड़ी हुआ करती थी, केवल एक रिस्ट वॉच, वो भी बाबूजी दफतर लगाकर जाते थे । बाकी, समय देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी । मोटे तौर पर रेडियो कार्यक्रमों के आधार पर तथा बीच-बीच की गई समय की घोषणा से काम चल जाता था । फिर आसपास के बच्चों को स्कूल से आते-जाते देख समय का अंदाज हो जाता था और स्कूल सध जाता था । कभी देर नहीं हुई, परीक्षा में भी नहीं ।
    आसपास के कई घरों में से घड़ी केवल मोनू के यहां थी, पुराने जमाने की दीवार घड़ी, जो हर घंटे टन-टन करके बजती थी, जितनी बजी हो उतने घंटे । आसपास के सभी लोगों का काम उसके घंटे सुनकर चल जाता । फिर बीच में जरूरत पड़ी तो उन्हें आवाज देकर पूछ लिया । इसी बहाने बातचीत भी हो जाती । मगर यह पुरानी बात है, तब इतना धीरज और सहनशक्ति थी । न पूछने वालों को खीझ होती न बताने वालों को । तब तो किसी अजनबी के पास भी यदि घड़ी हो तो टाइम पूछने के बहाने बातचीत शुरू करने का अच्छा माध्यम हो जाती थी, घड़ी ।
    पर, उन दिनों यूं हर पल का हिसाब नहीं रखना होता था । अब तो टाइम पूछने जाने का भी टाइम नहीं है । बेडरूम में भी दो घड़ियां  दीपशिखा ने इसलिए लगा दी कि सिर घुमाकर टाइम देखने में दो पल भी बर्बाद न हों । आंख उठाई और टाईम देख लिया ।
    वो दिन कब हवा हो गए, दीपशिखा ने बहुत जोर डाला दिमाग पर, मगर याद नहीं आया । उसे बस याद आया नौकरी लगने, शादी होने के बाद से घड़ी के कांटों से जिंदगी बंध गई । सुबह यदि दो मिनिट भी देर हो गई तो पूरा दिन बेकार । बस छूट जाती, अगली बस दूर से लेना होता । पतिदेव की तो और मुश्किल, वे अपनी गाड़ी से जाते, मगर दो मिनिट की देरी उन्हें बड़े जाम में फंसा सकती थी । फिर बच्चों का स्कूल । उसे लगा शहर के बड़ा होने से ही ऐसा हुआ है ।
    आज उसकी सेवानिवृत्ति के बाद की पहली रात है । बच्चे नौकरियों पर बाहर हैं । पतिदेव दुनिया में नहीं हैं । सारी बातें उसे क्रम से याद आ रही हैं । नहीं आ रही है तो बस नींद । बीते बरस कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला और आज उनचालीस साल की नौकरी और साठ साल की उम्र पूरी करके फिर वह घड़ियों की टिक-टिक में उलझी है । दीपषिखा ने तय किया कि सुबह उठकर वह सबसे पहले सारी घड़ियों को हटा देगी । तभी उसे ख्याल आया, सुबह क्यों अभी क्यों नहीं । वह तुरंत उठी और उसने फुर्ती से सारी घड़ियों के सेल निकालकर उन्हें उतार दिया । घर में शांति फैल गई । वास्तव में यही टिक-टिक उसे चिड़चिड़ा किए दे रही थी, उसने सोचा । फिर आराम से लेट गई । सचमुच उसे नींद आ गई, घड़ियों का शोर बंद हो जाने से या रात बहुत बीत जाने से ।     सुबह दीपशिखा की नींद खुली तो धूप बेडरूम की खिड़की से उसके पलंग तक आ गई थी । आदतन उसकी निगाह दीवार पर गई । ओह ! वहां से तो घड़ी मैनें ही हटाई है । दीपशिखा को याद आया । अभी शायद नौ बजे होंगे । उसने पलंग तक आई धूप से अंदाज लगाया । हुंह । कितने भी बजे हों । अब मैं घड़ी के कांटों से आजाद हूं । वह जल्दी से दो-तीन कप चाय बना, केटली में भरकर ले लाई और वहीं पलंग पर टे् सहित रखकर आराम से पीने लगी । सचमुच घड़ियों के न होने से कितना सुकून लग रहा है । दीपशिखा सोच रही है । वरना अब तक तो जाने कितनी बार घड़ी पर निगाह जाती और वह चाय के साथ इतमीनान का लुत्फ नहीं ले पाती । चाय पीकर, घड़ी रहित बाथरूम में आराम से नहाकर वह बेफिक्री से देर तक तैयार होती रही । नहाने और तैयार होने में कितना समय लगा, उसे खुद नहीं पता और वह जानना भी नहीं चाहती है। मगर सच तो यह है कि घड़ियों को हटाकर भी वह घड़ियों से मुक्त नहीं हो पा रही है ।
    हां, वह घड़ियों के न होने से उपजे सुकून को हर पल महसूस कर रही है । तैयार होकर उसने हाथ में पहले आदतन घड़ी पहनी फिर निकाल दी । फिर घूमने के इरादे से बाहर निकल आई । बस या टेक्सी...कुछ पल सोचते हुए वह फिर मुसकाई । मन ही मन उसने तय किया कि जब कहीं पहुंचने की समय सीमा न हो तो बस से बेहतर कुछ नहीं । वह बस में बैठी । बैठती तो वह रोज भी थी । मगर आज की बात और है । आज बस से कहीं पहुंचने की जल्दी उसे जरा भी नहीं है । वह इतमीनान से बैठी है । खिड़की से बाहर का नजारा उसने आज ही देखा और महसूस किया । उसने बस में बैठे लोगों पर नजर डाली । सब लोग उसी बेचैनी में बैठे हैं, जिसमें कल तक वह बैठा करती थी । वे बार-बार घड़ी देखते हैं और खीझते हैं । सबको गन्तव्य तक पहुंचने की बेचैनी है । वह मुसकाई और उसने सोचा बेचैनी से बस की गति नहीं बढ़ती । फिर उसने पास में बैठी स्त्री को देखा । उससे बात करने की गरज से टाईम पूछा । मगर टाईम बताते ही वह स्त्री बहुत बेचैन हो गई । कुछ पल बाद खड़ी हो गई मानो उसके खड़े होने से बस जल्दी पहुंच जाएगी ।
    खैर । कई स्टॉप आए और गए । वह उतर सकती थी । मगर नहीं उतरी । वह आखिरी स्टॉप पर उतरी । सामने एक बड़ा शापिंग मॉल देख वह वहीं चल दी । भीतर जाते ही खाने की चीजों की बड़ी सी नामी दुकान देख उसे भूख लग आई । पेटपूजा कर वह वहीं मल्टीप्लेक्स की टिकिट खिड़की पर जा खड़ी हो गई । ‘‘अभी जो शो होने वाला है, उसी का टिकिट दे दो ।’’ उसने कहा तो बुकिंग क्लर्क चौंका । फिर बोला ‘‘एक शो अभी चल रहा है और अगले शो में अभी टाईम है ।’’ उफ, फिर आड़े आया ये टाईम । अपनी खीझ को परे झटक वह मुसकाई । उसने अगले शो का टिकिट ले लिया और इतमीनान से बाहर आकर प्रतीक्षा करने लगी । शो शुरू होने का अंदाज उसने दूसरे लोगों को थियेटर में जाते देखकर लगाया और वह भी चली गई ।
    फिल्म देखकर निकली तो पाया कि सूरज ढलने में अभी देर है । वह घर की ओर रवाना हुई और शाम होने के पहले पहुंच गई । बालकनी में बैठकर चाय पीते हुए उसने पहली बार अपने घर से सूर्यास्त देखा और देर तक देखती रही । सब कुछ अंधेरे में डूबने के बाद जब सड़क की बत्तियां जली तब वह भीतर आई । लाइट जलाने के साथ ही उसकी निगाह, दीवार पर वहां पड़ी, जहां घड़ी नहीं थी । अब वह टाईम जानना चाहती थी क्योंकि अब उसे बिटिया के फोन का इंतजार था । रोज ठीक आठ बजे उसका फोन आता है । आठ बजने में कितना समय बाकी होगा, उसे जरा भी अंदाज नहीं हो पा रहा है । एक पल को घड़ी वापस लगाने का ख्याल आया, मगर इसके साथ ही खिझानेवाली टिक-टिक भी याद आ गई । उसने सोचा मोबाइल उठाकर घड़ी देखे पर यह विचार भी उसने झटक दिया । फिर उसने रिमोट उठाया और टी.वी. चालू कर दिया । मगर तभी लाइट चली गई । वह फिर बाहर आकर बैठ गई । पता नहीं कितने बजे हैं ! बिटिया का फोन कब आएगा ! लाइट कब आएगी ! समय पता होता तो काटना आसान होता शायद...। सोचती हुई वह उबने लगी । फिर फोन की घंटी बजी और दूसरी ओर से बेटी की आवाज सुनकर वह समझ गई कि रात के आठ बजे हैं । मगर फिर भी लंबे इंतजार की ऊब शब्दों में बदलकर निकली-‘‘आज बहुत देर हो गई...मुझे चिंता हो रही थी ।’’
‘‘ओह मां ठीक आठ बजे हैं चाहों तो घड़ी मिला लो ।’’ बेटी ने कहा तो वह फिर अपनी रौ में बह चली । घड़ियों से अपनी आजादी की बात बेटी को बताते हुए वह अतिरिक्त खुश थी । मां की खुशी में बेटी भी खुश हुई मगर घड़ियों से आजाद जिंदगी की कल्पना उसे अजीब लगी । पर वह कुछ नहीं बोली।
    फिर रात का खाना खाते हुए वह टी.वी. देखती रही । और जब रीपीट सीरीयल  शुरू हुए तो उसने टी.वी. बंद कर दिया और सोने की तैयारी करने लगी । बिस्तर पर लेटते ही आदतन उसकी नजर दीवार पर पड़ी । उसे सूनापन लगने लगा ।शांति उसे काटने लगी । घोर सन्नाटा । कैसा मनहूस लग रहा है । कुछ मिसिंग है । दीवारों पर बार-बार नजर जाती । घड़ी देखते हुए समय कट जाता है, और कुछ नहीं तो यही सोचकर कि तीन घंटे हो गए नींद नहीं आई या सुबह होने में चार घंटे बाकी हैं । उसे लगा टिक-टिक की लोरी सी सुनते हुए नींद कब आ जाती थी, पता ही नहीं चलता था । टिक-टिक में किसी के होने का एहसास था । कैसी लयबद्ध टिक-टिक आती थी, हर कमरे से...कैसा सुमधुर संगीत...। उसे घड़ियों की टिक-टिक याद आने लगी । उसने सोचा सुबह उठकर सबसे पहले सारी घड़ियां चालू करके लगाउंगी । तभी उसे ख्याल आया, सुबह क्यों, अभी क्यों नहीं । वह फौरन उठी और उसने फुर्ती से सब घड़ियों में सेल डालकर उन्हे उनकी जगह पर टांग दिया ।
    और इस नीरवता में घड़ियों की टिक-टिक ने उसे जीवंतता के एहसास से भर दिया । उसे अपना घर अपना सा लगने लगा, और घड़ियां अपनी सहेलियां ।

बुधवार, 12 जनवरी 2011

रेल में बैठी स्त्री --- मीनाक्षी स्वामी

रेल में बैठी स्त्री                         कविता    
तेज रफ्तार दौड़ती रेल में
  बैठी स्त्री
खिड़की से देखती है
पेड़, खेत, नदी और पहाड़
पहाड़ों को चीरती
नदियों को लांघती,
जाने कितनी सदियाँ, युग
पीछे छोड़ती रेल
दौड़ती चली जाती है
स्त्री खिड़की से देखती है
मगर
वह तो रेल में ही बैठी रहती है
वहीँ की वहीँ
वैसी ही
वही डिब्बा, वही सीट,
वही कपड़े, वही बक्सा
जिसमें सपने भरकर
वह रेल में बैठी थी कभी
रेल मेँ बैठी स्त्री
बक्सा खोलती है
और देखती है सपनों को
सपने बिल्कुल वैसे ही हैं
तरोताजा और अनछुऐ
जैसे सहेजकर उसने रखे थे कभी
स्त्री फिर बक्सा बंद कर देती है
और सहेज लेती है
सारे के सारे सपने
रेल दौड़ती रहती है
पेड़, नदी, झरने
सब लांघती दौड़ती है रेल
पीछे छूटती जाती हैं सदियाँ
और रेल के भीतर बैठी स्त्री के सपने
वैसे ही बक्से में बंद रहते हैं
जैसे उसने
सहेजकर
रखे थे कभी ।

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

ब्लॉग पर आने की वजह --- मीनाक्षी स्वामी

देर से ही सही पर ब्लॉग पर आ गई हू . वेसे विचार और कला अपने विस्तार के लिए तकनीक पर निर्भर होती हें इसीलिए वैश्विक स्तर पर विचारो के आदान प्रदान के लिए ये बेहतरीन माध्यम के रूप में ब्लॉग जगत में आकर भीतर से समर्थ महसूस कर रही हू . आते ही जिस तरह से तुरंत स्वागत की प्रतिक्रिया मिली उससे बहुत उत्साहित भी हू.

अपने ब्लॉग का नाम भूभल रखा है . भूभल  याने चिनगारियो से युक्त गर्म राख. हर रचनाकार के भीतर  एसी   ही आग होती है . जो विरोधाभासो पर जब  प्रतिक्रिया करती है तो रचना का जन्म  होता है. और भूभल  मेरे ताजातरीन प्रकाशित उपन्यास का भी नाम है. 

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

अपनी बात --- मीनाक्षी स्वामी

                   डॉ. मीनाक्षी स्वामी

शिक्षा -        एम.ए. - समाजशास्त्र। पीएच. डी.-मुस्लिम महिलाओं की बदलती हुई स्थिति पर।
जन्म -       27 जुलाई 1959 
सम्प्रति -     प्राध्यापक, मध्यप्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग के अधीन इंदौर में पदस्थ।
स्थायी पता -     सी.एच.78 एच.आय.जी. दीनदयाल नगर, सुखलिया, एम.आर.10 मेन रोड इंदौर     मध्यप्रदेश-452010
फोन -         0731- 4992570 
ई मेल -     meenaksheeswami@gmail.com

सम्मान-पुरस्कार--

-पर्यावरण व वन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा फिल्म स्क्रिप्ट ‘इस बार बरसात में’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार, वर्ष 1993.

-गृह मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा ‘सामाजिक चेतना और विकास के परिप्रेक्ष्य में पुलिस की भूमिका का उद्भव’ पुस्तक पर पं. गोविन्दवल्लभ पंत पुरस्कार, वर्ष 1993. इस भाग में पुरस्कृत होने वाली प्रथम महिला।

-सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा ‘कटघरे में पीड़ित’ पुस्तक पर भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, वर्ष 1995.

-संसदीय कार्य मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा ‘राष्ट्रीय एकता और अखंडता : बंद द्वार पर दस्तक’ पुस्तक पर पं. मोतीलाल नेहरू पुरस्कार, वर्ष 1995. 

-विधानसभा सचिवालय, मध्यप्रदेश द्वारा भारत में संवैधानिक समन्वय और व्यावहारिक विघटन’ पुस्तक पर डॉ. भीमराव आम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार, वर्ष 1995.     

-उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा नवसाक्षर साहित्य लेखन के लिए पुस्तकें ‘निश्चय’, ‘सुबह का भूला’, ‘साहसी कमला’, ‘गोपीनाथ की भूल’, साहब नहीं आए’, ‘हरियाली के सपने’, ‘छोटी-छोटी बातें’, ‘नादानी’ व ‘शिकायत की चिट्ठी’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार, वर्ष 1995, 1997,1999 व 2002.

-आकाशवाणी महानिदेशालय, नई दिल्ली रेडियो रूपक ‘कहां चली गई हमारी बेटियां’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार, वर्ष 1995. 

-राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंघान व प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी.), नई दिल्ली द्वारा ‘बीज का सफर’ पुस्तक पर बाल साहित्य का राष्ट्रीय पुरस्कार, वर्ष 1995.

-चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली द्वारा ‘व्यक्तित्व विकास और योग’ पुस्तक पर राष्ट्रीय पुरस्कार,वर्ष 1995.

-महामहिम राज्यपाल मध्यप्रदेश द्वारा उत्कृष्ट साहित्यिक योगदान के लिए सम्मानित, वर्ष 1997.

-सहस्त्राब्दि विश्व हिंदी सम्मेलन 2000 में उत्कृष्ट साहित्यिक योगदान (हिंदी) सम्मान.

-मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा पुस्तक ‘बहूरानी’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार, वर्ष 2002.

-उत्कृष्ट लेखकीय योगदान के लिए माधवराव सिंधिया प्रतिष्ठा सम्मान, वर्ष 2003.

-गृह मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा ‘खंडित होते पुलिस के मानवाधिकार’ पुस्तक पर पं.गोविन्दवल्लभ पंत पुरस्कार, 2005.

-मध्यप्रदेश जनसम्पर्क विभाग द्वारा स्वर्ण जयंती कहानी पुरस्कार ‘धरती की डिबिया’ कहानी पर, वर्ष 2007.

-मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा पुस्तक ‘बापू की यात्रा’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार, वर्ष 2008.

-साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश द्वारा उपन्यास ‘भूभल’ पर बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ प्रादेशिक पुरस्कार, वर्ष 2011.

-अखिल भारतीय विद्वत् परिषद् वाराणसी द्वारा उपन्यास ‘भूभल’ पर कादम्बरी पुरस्कार, वर्ष 2011.

-साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश द्वारा उपन्यास ‘नतोहम्’ पर अखिल भारतीय राजा वीरसिंह देव पुरस्कार, वर्ष 2012.

-साहित्य मंडल नाथद्वारा, राजस्थान द्वारा सारस्वत सम्मान व साहित्य कुसुमाकर की मानद उपाधि, 2018.

-अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, राजस्थान द्वारा उपन्यास ‘नतोहम्’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार, वर्ष 2018.




प्रकाशित कृतियां -

उपन्यास- 

     -भूभल (पुरस्कृत)
     -नतोहम् (पुरस्कृत व अटलबिहारी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के स्नातक पाठ्यक्रम में)
     -सौ कोस मूमल   

कहानी संग्रह- -अच्छा हुआ मुझे शकील से प्यार नहीं हुआ
        -धरती की डिबिया (संग्रह की कुछ कहानियां भारतीय भाषाओं में अनूदित)   

स्त्री विमर्श- -कटघरे में पीड़ित (पुरस्कृत)
     -अस्मिता की अग्निपरीक्षा (पुरस्कृत और मराठी में अनूदित)

सामाजिक विमर्श- -भारत में संवैधानिक समन्वय और व्यावहारिक विघटन (पुरस्कृत)
     -सामाजिक चेतना और विकास के परिप्रेक्ष्य में पुलिस की भूमिका का उद्भव (पुरस्कृत)
     -पुलिस और समाज (पुरस्कृत)
     -मानवाधिकार संरक्षण एवं पुलिस

किशोर साहित्य- -लालाजी ने पकड़े कान (किशोर उपन्यास)
     -व्यक्तित्व विकास और योग (पुरस्कृत) अंग्रेजी में अनूदित

बाल साहित्य--बीज का सफर (पुरस्कृत) मराठी भाषा में अनूदित
     -चौरंगी पतंग
     -बूंद-बूंद से सागर
     -पाली का घोड़ा
     -पीतल का पतीला
     -क्यों...? (अंग्रेजी व अन्य कई भारतीय भाषाओं में अनूदित)
     -बांसुरी के सुर

नवसाक्षर साहित्य- 
    
      -किसी से न कहना
     -काम का बंटवारा
     -मुसकान
     -घर लौट चलो (कई भारतीय भाषाओं में अनूदित)
     -सांझ सबेरा (कई भारतीय भाषाओं में अनूदित)
     -मूमल महेन्द्र की प्रेम कथा
     -निश्चय (पुरस्कृत)
     -सुबह का भूला (पुरस्कृत)
     -साहसी कमला (पुरस्कृत)
     -गोपीनाथ की भूल (पुरस्कृत)
     -साहब नहीं आए (पुरस्कृत)
     -हरियाली के सपने (पुरस्कृत)
     -छोटी-छोटी बातें (पुरस्कृत)
     -नादानी’ (पुरस्कृत)
     -शिकायत की चिट्ठी (पुरस्कृत)
     -बहूरानी (पुरस्कृत)
     -बापू की यात्रा (पुरस्कृत)
     -हमारा राज है
     -टेढ़ी उंगली का घी
     -जरा सम्हल के
     -हम किसी से कम नहीं
     -नीलोफर का दुख
     -यह है बुरी बीमारी
     -गुलाब का फूल
     -राखी का हक

नाटक -
      -सच्चा उपहार

पाठ्यक्रम में-

-‘धरती की डिबिया’ कहानी गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में।        

-‘नतोहम्’ उपन्यास अटलबिहारी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल।

-मध्यप्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग के बी.ए. प्रथम वर्ष हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में द्रुत पाठ के अंतर्गत व्यक्तित्व व कृतित्व शामिल।
   
अन्य-   

-यूनीसेफ, यूनेस्को, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, एन.सी.ई.आर.टी., राज्य संसाधन केंद्र उत्तर प्रदेश व मध्यप्रदेश आदि के द्वारा आयोजित विभिन्न कार्यशालाओं में भागीदारी।
-साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश व अन्य संस्थानों द्वारा आयोजित कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुख्य वक्ता, मुख्य अतिथि, अध्यक्ष के रूप में भागीदारी।
-मानवाधिकारों के विभिन्न पहलूओं एवं उनमें पुलिस की भूमिका पर केंद्र सरकार, मध्यप्रदेश व राजस्थान के विभिन्न पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों में अनेक व्याख्यान।
-मध्यप्रदेश राज्य महिला आयोग इंदौर नेट वर्क की पूर्व सदस्य।
-संस्कृति विभाग, मध्यप्रदेश शासन की पुस्तक चयन समिति की पूर्व सदस्य।
-श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर (सौ वर्षों से हिंदी की सेवा व प्रचार में संलग्न प्रतिष्ठित  संस्था) में मंत्री, समसामयिक अध्यन केंद्र
-श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर से प्रकाशित हिंदी पत्रिका में तीन वर्ष तक सम्पादक मंडल में।
-भारत सरकार के कारपोरेट कार्य मंत्रालय की राजभाषा समिति की पूर्व सदस्य।
-आपकी कई पुस्तकों का विभिन्न भारतीय भाषाओं व अंग्रेजी में अनुवाद।
-देश भर के विश्वविद्यालयों में कई छात्रों द्वारा आपके रचना-कर्म पर शोध कार्य जारी।
               
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