शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

"भूभल"---मीनाक्षी स्वामी

"भूभल" उपन्यास से कथा अंश ----मीनाक्षी स्वामी


मित्रों, आप सभी को यह जानकर खुशी होगी कि मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ने इस उपन्यास को पाठक मंच के लिये चुना तो जून जुलाई में प्रदेश भर में चर्चा, प्रशंसा हुई।

वाराणसी में अखिल भारतीय विद्वत् परिषद ने इसे पुरस्कार के लिये चुना है। नवम्बर में आयोजन है।


सर्दियों के छोटे-छोटे दिन।
शाम साढ़े पांच-छह बजे तक तो अंधेरा घिर जाता। ठंड के मारे लोग घरों में दुबक जाते। सड़कें भी सुनसान। बच्चे स्कूल से आकर कुछ खाते-पीते, तरोताजा होते कि घना अंधेरा घिर जाता। खेलना तो हो ही नहीं पाता।
वह महीने का आखिरी दिन था। हमेशा की तरह स्कूल आधे दिन ही लगा। बच्चे जल्दी घर आ गए थे। बहुत दिनों बाद शाम को खेलने का कार्यक्रम बना। तय हुआ कि काका के पास जाएंगें। फिर वहीं खेल कूद कर वापस आ जाएंगें। सरला, राज, इंदु, कंचन और दिनेश सब चल दिए, काका की नर्सरी की तरफ।
‘‘अच्छा हुआ आ गए, आज मेथी के परांठे खिलाउंगा।’’ काका ने स्नेह से भिगो दिया।
‘‘मेथी के परांठे के साथ टमाटर की सब्जी......।’’ सरला चिहुंकी
‘‘हां काका, पर अभी तो हम खेलेंगें।’’ राज ने टोका
‘‘ओह ! अभी तो मैं भी तैयारी करूंगा। तुम खेलो तब तक.....।’’
काका नर्सरी के पीछे की तरफ मेथी, टमाटर तोड़ने चले गए। बच्चे छुपा छाई खेलने लगे। पहली बार सरला पर दाम आया। नर्सरी काफी बड़े मैदान में फैली थी। बच्चे दूर-दूर जाकर छुप गए। उन्हें ढूंढने में सरला को देर लगी। अगली बार राज पर दाम आया। जब उसने ढूंढा तो सब तो मिल गए पर सरला नहीं मिली।
‘‘जाने कहां दूर जाकर छुपी है...सरला....।’’
‘‘सरला.......’’ राज ने आगे बढ़ते हुए आवाज दी।
दूसरे बच्चों ने भी आवाज दी।
‘‘हमेशा ऐसे ही करती है......सरला...सरला....।’’ आवाज देते हुए बच्चे नर्सरी में घूम कर, पेड़ों, झाडि़यों के पीछे सरला को ढूंढने लगे।
‘‘खेल खतम हो गया है सरला...निकल आओ।’’ कंचन ने हथेलियों का भोंपू सा बनाकर आवाज दी। मगर कोई जवाब नहीं आया। दूर एक जगह झाडि़यां हिलती सी दिखी तो बच्चे उसी दिशा में दौड़े मगर वहां कोई नहीं था। चारों हैरान - परेशान ढूंढ रहे थे। देर होने से घर वालों की डांट का डर भी सता रहा था। अंधेरा तेजी से फैल रहा था।
‘‘कहां गई होगी सरला......काका के पास चलें कभी उनके पास हो तो !’’ कंचन बोली
‘‘हां-हां काका के पास चलते हैं, वहीं होगी वो...।’’ इंदु ने कहा।
‘‘नहीं होगी तो भी काका हमारे साथ ढूंढेंगें।’’ राज ज्यादा चिंतित था।
तभी सरला के चीखने की आवाज सुनाई दी। आवाज नर्सरी के पीछे की तरफ से आ रही थी। बच्चे आवाज की दिशा में दौड़े।
‘‘कौन है...?’’ फिर काका की कड़क आवाज आई।
तभी मोटर साईकिल स्टार्ट करने की आवाज आई जो कुछ पलों में ही बंद हो गई।
फिर काका की आवाज आई - ‘‘अरे बाबा रे...मार डाला रे...नहीं छोड़ूंगा...तुम्हें नहीं छोड़ूंगा...।’’
काका के कराहने की आवाज के साथ मोटर साईकिल स्टार्ट होकर घीरे-घीरे उसकी आवाज दूर जाती सुनी बच्चों ने। वे आवाज की दिशा की तरफ दौड़ पड़े थे। नर्सरी के पीछे बांउड्री के कांटेदार तारों के पास काका जमीन पर पड़े कराह रहे थे। उनके माथे से खून निकल रहा था। बच्चे घबरा गए...।
‘‘काका...काका...ओ काका....।’’
‘‘वो...वो...वो...स...र...ला...।’’ काका ने सड़क के दूसरी ओर हाथ उठाकर किसी तरह कहा और बेहोश हो गए । बच्चों ने उस ओर देखा, कांटेदार तारों के उस पार सड़क पर सरला......।
कंचन और इंदु दौड़कर सरला की तरफ गए....। वह पीठ के बल पड़ी थी । उसके सिर के पिछले भाग की तरफ ढेर सारा खून बहकर जमीन पर फैला हुआ था... । उसका स्कर्ट एक तरफ पड़ा था।
काका और सरला का यह हाल देखकर बच्चों की तो घिग्घी बंध गई। काटो तो खून नहीं। एक शब्द भी नहीं बोल पा रहा था कोई। कंचन ने जैसे-तैसे स्कर्ट उठाकर उसके शरीर को ढका। यह जगह बिल्कुल सुनसान थी। यहां दिन में भी कोई नहीं आता था। एक ओर किसी फेक्ट्री की ऊंची दीवार, दूसरी ओर काका की नर्सरी के बड़े-बड़े पेड़। यहां वैसे भी अंधेरा जल्दी महसूस होने लगता था। और अब तो अंधेरा पूरी तरह उतर ही चुका था। बच्चे बुरी तरह घबरा रहे थे। इंदु तो डर के मारे रोने लगी। राज कांप रहा था। कंचन और दिनेश का तो दिमाग जैसे सुन्न ही हो गया था ।
तभी किसी वाहन की लाइट पड़ी। देखा तो दूर से एक रिक्षा आ रहा था, पास आकर रूका। ‘‘अरे...किरण....राज....तुम...!’’
संयोग कि देवयोग, ये तो गोपाल था ।
‘‘गोपाल भैया.....।’’ किसी तरह कंचन ने कहा और उस ओर इशारा किया।
गोपाल, कंचन के बाबूजी के दफ्तर में चपरासी था। छुट्टी के बाद आटो रिक्षा चलाता था। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई सारा माजरा समझ गया। झटपट नर्सरी गया। वहां से एक फोन उसने पुलिस को किया, दूसरा कंचन के घर। बच्चों को उसने भीतर काका के घर में बिठाया, खुद काका और सरला के पास खड़ा हो गया। पुलिस के पहले पहुंचे कंचन के बाबूजी। उनके साथ थे इंदु और सरला के पापा। सब ऐसे गंभीर थे कि बच्चों की तो कुछ देखने पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। डरे हुए तो पहले से ही थे।
कंचन के बाबूजी सब बच्चों को घर छोड़ने आए। वे रास्ते भर चुप थे। बच्चों को छोड़कर उल्टे पैरों लौट गए। अम्मा तो रास्ता ही देख रही थी। जैसे ही बच्चे आए, उन्हें दरवाजा बंद करने का कहकर सरला के घर चली गई।
‘‘कंचन क्या हो गया सरला को....काका को किसने मारा......?’’ राज ने पूछा
‘‘पता नहीं...कोई कुछ बोलता नहीं...।’’ वह भी कुछ समझ नहीं पा रही थी।
‘‘हमें कोई कुछ बताता क्यों नहीं ?’’ राज चुप नहीं हो रहा था जबकि कंचन का मन बात करने नहीं था।
‘‘मुझे क्या पता ! तू सरला के घर जा...वहां अम्मा हैं....पूछ ले उनसे...।’’ कंचन ने चिढ़कर कहा।
और राज सचमुच ही उठकर चलने को हुआ।
‘‘ठहर मैं भी आती हूं।’’ कंचन भी उठी। बाहर से कुंडी लगाकर दोनों सरला के घर की तरफ चले। उनके घर का दरवाजा उढ़का हुआ था। राज ने धक्का दिया तो खुल गया। भीतर सरला की मम्मी फूट-फूटकर रो रही थी। अम्मा और इंदु की मम्मी उन्हें समझाकर चुप कराने की कोशिश कर रही थी।
राज और कंचन भीतर चले गए -‘‘अम्मा.....।’’
‘‘चलो बेटा....।’’ कहते हुए अम्मा उठ खड़ी हुई और अपने साथ दोनों को बाहर ले आई।
‘‘घर जाओ बेटा...।’’ बाहर आकर उन्होंने समझाया।
‘‘अम्मा, सरला को क्या हुआ...? काका को क्या हुआ ?’’ राज ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं बेटा। बाबूजी और सब लोग अस्पताल गए हैं ना उनके पास !’’ अम्मा ने फिर समझाया।
‘‘लेकिन...अम्मा...वो...वो...वो...वो...’’ राज अटकने लगा तो कंचन ने बात पूरी की - ‘‘अम्मा...क्या हुआ.....? सच बताओ ना !’’
‘‘बेटा, कुछ बदमाशों ने उन्हें मारा है। अब तुम घर जाओ।’’ अम्मा उन्हें लगभग घसीटती हुई घर ले आई और भीतर करके दरवाजे की कुंडी बाहर से चढ़ाकर उल्टे पैरों सरला के यहां लौट गई।
‘‘किसने मारा होगा सरला और काका को...! कौन बदमाश थे वो...।’’ कंचन ने राज से बात करके अपने मन की व्यथा को कम करना चाहा।
‘‘पता नहीं, मुझे तो बहुत डर लग रहा है।’’ राज की घबराहट अभी भी कम नहीं हुई थी।
इसी तरह के अनसुलझे सवाल दोनों आपस में तब तक करते रहे जब तक नींद ने उन्हें अपने आगोश में नहीं ले लिया। बाबूजी-अम्मा कब आए ? देर रात तक क्या होता रहा ? मासूम बच्चों को कुछ नहीं पता।
अगले दिन सुबह उठे तो फिर अम्मा से पूछने लगे। अम्मा ने केवल इतना कहा- ‘‘काका और सरला को अस्पताल ले गए हैं...और तुम दोनों तैयार होकर स्कूल जाओ।’’
‘‘और हां...स्कूल में किसी से भी इस बारे में कोई बात मत करना....और आपस में भी नहीं, समझे...।’’ बाबूजी ने बहुत जोर देकर कहा।
राज और किरण उतना भर ही समझे जितना बाबूजी ने कहा था। मगर वे तो वह सब कुछ जानना समझना चाहते थे जो उन्हें नहीं बताया जा रहा था या उनसे छुपाया जा रहा था। कंचन ने गौर किया कि बाबूजी गहरे सोच में डूबे हैं। तभी उन्होंने अम्मा के पास जाकर धीरे से कुछ कहा। अम्मा ने सहमति में गरदन हिलाई। फिर वे राज और कंचन की तरफ रूख करके बोली - ‘‘ऐसा करो, आज तुम दोनों स्कूल मत जाओ...घर पर ही पढ़ाई करो।’’
‘‘और हां...अम्मा को परेशान मत करना। मैं जरा अस्पताल तक होकर आता हूं।’’ इतना कहकर बाबूजी निकल गए ।
‘‘अम्मा, मैं इंदु के यहां से आती हूं।’’ कहकर अम्मा का जवाब सुने बिना कंचन तीर सी निकली और जा पहुंची इंदु के घर। पीछे-पीछे राज भी आया।
‘‘ओह बाबूजी ! आप यहां बैठे हैं ? आप तो अस्पताल जा रहे थे ना !’’ बाबूजी को देख कंचन के मुंह से निकला।
‘‘हां बेटा, मैं और गणेश भाई साथ ही जाएंगें...अभी निकल ही रहे हैं।’’
कंचन भीतर पहुंची । इंदु और दिनेश को उसकी मम्मी यही हिदायत दे रही थी ‘‘देखो, इस बारे में किसी से कोई बात मत करना।’’ उन दोनों को भी आज स्कूल नहीं भेजा गया था। चारों हैरान थे और परेशान भी।
‘‘मम्मा, हम सरला और काका को देखने अस्पताल जा सकते हैं ?’’ इंदु ने अपनी मम्मी से कहा तो बाकी तीनों भी उससे सहमति का स्वर मिलाने लगे।
‘‘तुम चारों पढ़ाई करो...और हां कंचन...राज...तुम भी अपने घर जाओ और पढ़ो ।’’ इंदु की मम्मी ने कहा
कंचन और राज घर लौट आए । अम्मा नाराज हो रही थी ‘‘तुम अब कहीं नहीं जाओगे और किसी से कोई बात नहीं करोगे, चुपचाप पढ़ने बैठ जाओ।’’ अम्मा ने गुस्से से कहा तो दोनों किताब खोलकर पढ़ने बैठ गए । मगर मन कल की घटना और बड़ों के अजीब व्यवहार पर दौड़ता रहा ।
दोनों बुरी तरह चकरा गए जब अम्मा ने कहा ‘‘देखो कभी पुलिस आए और कुछ पूछे तो बताना मत कि कल तुम सरला के साथ खेल रहे थे या काका की नर्सरी पर गए थे...समझे !’’
‘‘पर हम तो गए थे...।’’ कंचन ने कहा तो अम्मा ने उसे बुरी तरह डांट दिया ‘‘जैसा कहा है वैसा करो। ज्यादा दिमाग खराब करने की जरूरत नहीं है...।’’ फिर वे बड़बड़ाने लगी ‘‘हरिश्चंद का सत तो इन्हें ही चढ़ा है।’’
कंचन और राज हैरान थे। वे पूछना चाहते थे, पुलिस क्यों आएगी ? और क्या पूछने वाली थी और उसे सच क्यों नहीं बताना है ? मगर अम्मा की डांट से सहमे हुए दोनों फिर किताब खोलकर बैठ गए।
‘‘खाना खा लेना। मैं सरला के यहां जा रही हूं।’’ जल्दी-जल्दी काम निपटा कर अम्मा सरला के यहां चली गई।
राज और कंचन ने किताब एक तरफ रख दी। भूख तो थी नहीं। अपनी सोच से उपजे उन प्रश्नों को, जिनके जवाब दोनों के पास नहीं थे, एक दूसरे से पूछ-पूछकर अपने मन के भारीपन को हल्का करने की कोशिश करने लगे । बात जो भी है, बहुत गंभीर है, यह तो वे समझ रहे थे । मगर क्या है, यह नहीं जान पा रहे थे । काका और सरला की शारीरिक अवस्था तो उन्होंने अपनी आंखों से देखी थी । मगर पुलिस की बात....? सबसे छुपाने की बात...? उनकी समझ के बाहर थी । जब प्रश्नों का सिलसिला खतम हो गया तो दोनों गहरे सोच में डूबकर, कुछ बाहर लाने की नाकाम कोशिश करने लगे ।
आज का अखबार टेबल पर ही पड़ा था। कंचन ने यूं ही उठा लिया और अनमने मन से देखने लगी। अंदर के पेज पर एक हेडलाइन पर नजर पड़ते ही वह चौंक गई-
‘नर्सरी के पास बालिका से बलात्कार के बाद हत्या, वृद्ध घायल’
जल्दी से पूरी खबर पढ़ी और पढ़कर हतप्रभ रह गई । लिखा था - ‘‘कल शाम कालका माता मंदिर के पास स्थित काका की नर्सरी के पास अकेली जा रही ग्यारह वर्षीय बालिका की अज्ञात बदमाशों ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी । घटना को देखकर शोर मचाने वाले वृद्ध नारायणप्रसाद मिश्रा ‘काका’ को बदमाशों ने सिर पर भारी पत्थर मार कर घायल कर दिया। ‘काका’ की हालत गंभीर है। पुलिस के अनुसार बालिका के साथ बलात्कार किया गया था। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट आने पर मामले का खुलासा होगा।’’
खबर के साथ काका की हालत की तस्वीर भी थी ।
‘‘रा...ज...ये...दे....ख..प...ढ़......।’’ कंचन चीखी
राज ने पढ़ा और जड़ हो गया। ग्यारह वर्षीय बालिका सरला ही तो है। तो सरला की हत्या हो गई ! मगर सरला का नाम अखबार में क्यो नहीं है ? काका का तो है। और सरला तो हमारे साथ खेल रही थी। ऐसा क्यों नहीं आया अखबार में...?
कंचन की आंखों के आगे कल रात की घटना घूमने लगी। काका की हालत भी गंभीर है। वह सिर पकड़कर बैठ गई।
जरा देर बाद उसने राज से पूछा-‘‘और ये बलात्कार क्या होता है...?’’
कंचन नहीं जानती, राज भी नहीं जानता। वह चुप है।
कंचन ने राज को झिंझोड़ा...‘‘राज बता ना ! बलात्कार क्या होता है...?’’
‘‘मु...झे...मुझे नहीं....पता...।’’ किसी तरह राज के मुंह से निकला।
‘‘चल इंदु के पास चलते हैं ।’’
‘‘और उसकी मम्मी ने वापस जाने को कहा तो...?’’ राज ने शंका जताई
‘‘अरे उसकी मम्मी भी तो सरला के यहां होंगीं।’’ कंचन ने समझाया।
दोनों निकले। कंचन ने अखबार रख लिया। जाकर इंदु और दिनेश को दिखाया तो वे भी दहल गए। इंदु ने कंचन से बलात्कार का मतलब पूछा । मगर कंचन भी कहां जानती थी।
जानती तो सरला भी नहीं थी......।
मगर जो भी हुआ बुरा था...बहुत बुरा। यह तो वे चारों समझ रहे थे। चारों बहुत दुखी थे। सरला उनकी गहरी मित्र थी। बचपन से अभी तक वे सब साथ खेलत-पढ़ते रहे थे। उन्हें काका की भी चिन्ता थी। मगर उन्हें कोई कुछ बता ही नहीं रहा था। इसका अलग दुख था उन्हें। धीरे-धीरे चारों के सवाल, दुख सब मिलकर आंसुओं के रूप में बाहर आने लगे। काफी देर तक रोकर मन हलका हुआ तो पता चला सरला को एम्बुलेंस में लाए हैं। वे सरला से अंतिम विदा लेना चाहते थे मगर बड़ों ने इसकी जरूरत ही नहीं समझी। हां, इंदु के घर की खिड़की से छुपकर जितना देख सकते थे, देखते रहे, रोते रहे।
लंबे समय तक वे इस शोक में डूबे रहे। उनका मन कहीं नहीं लगता था। यह घटना रात दिन उनकी आंखों में बसी रहती थी। स्कूल भी जाते तो क्लास में उनका ध्यान नहीं होता। किताब खोलते तो अखबार की वही मनहूस खबर वाले अक्षर आंखों के आगे आ जाते।
काका को देखने घर के बड़े लोग जाते रहते। महीना भर बीत गया था पर काका कोमा से बाहर नहीं आए। ऐसा बड़ों की बातों से, उन सबकी समझ में आया। ‘कोमा’ का मतलब वे नहीं जानते थे। कंचन ने साहस करके अम्मा से पूछा तो उन्होंने बताया-‘‘काका को चोट लगने के बाद से होश नहीं आया है।’’
कंचन का मन हुआ कि अम्मा से बलात्कार के बारे में भी पूछे। मगर उनका कठोर चेहरा देखकर हिम्मत ही नहीं हुई। बड़ों की बातों से यह भी पता चला कि पुलिस को बदमाशों के बारे में कोई सुराग नहीं मिल पा रहा है। काका के होश में आने पर ही कुछ पता चल पाता पर उन्हें भी तो होश नहीं आया था। पुलिस को भी उनके होश में आने का इंतजार था।
घर का माहौल भी इतने दिनों से ठीक नहीं था। अम्मा बात-बात पर डांटती टोकती रहती। इंदु के घर में भी यही स्थिति थी। पूरी गली के घरों में लड़कियों के बाहर खेलने-घूमने पर रोक लग गई। बस, घर से स्कूल और स्कूल से घर। जरा भी देर हो जाए तो घर वाले ढूंढने लग जाते। बच्चे काका से मिलना चाहते थे मगर संभव नहीं दिखता था । एक दिन चारों ने योजना बनाई और स्कूल से लौटते हुए काका को देखने अस्पताल पहुंचे। मगर अस्पताल के कम्पाउंड के भीतर घुसे ही थे कि गणेश चाचा याने इंदु के पापा मिल गए। वे चारों को भीतर ले गए। एक कमरे में पारदर्शी कांच की दीवारें थी, वहीं से बच्चों ने काका को देखा। वे बेहोश थे और नाक में नलियां लगी थी। भारी मन से चारों बाहर निकले। गणेश चाचा ने चारों को घर छोड़ा। मगर घर लौटकर, बिना बताए अस्पताल जाने के लिए चारों की जमकर पिटाई हुई।
दिन बीत रहे थे। मगर काका की तबियत में कोई सुधार नहीं था। सरला के हादसे के सदमे से बच्चे अभी उबर भी नहीं पाए थे कि होली के ठीक दो दिन पहले काका के न रहने की बुरी खबर मिली।
सारे बच्चे रो रोकर बेहाल थे। शाम को देर तक बच्चे कंचन के आंगन में काका के लगाए गुलमोहर के पेड़ से लिपटकर रोते रहे और काका के होने के एहसास से मन को भरमाते रहे। इस साल गली के किसी भी बच्चे का रिजल्ट ठीक नहीं आया। इसके बाद के साल दुर्घटना की स्मृति को धीरे-धीरे घुंघला करते रहे। बावजूद इसके, सरला के घर के आगे से निकलते हुए उनकी निगाह उस ओर उठती और वहां स्थायी रूप से लटका ताला देखकर उनका मन उदास हो जाता। इसके अलावा भी कभी भी, किसी के भी मन पर उस दिन का वह मनहूस दृश्य ज्यों का त्यों उभर आता ।
कच्चे मन पर पक्के निशान अंकित हो गए थे।

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17 टिप्‍पणियां:

  1. "शाम को देर तक बच्चे कंचन के आंगन में काका के लगाए गुलमोहर के पेड़ से लिपटकर रोते रहे और काका के होने के एहसास से मन को भरमाते रहे।...कच्चे मन पर पक्के निशान अंकित हो गए थे।"

    बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति।

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  2. वहशियों द्वारा बलात्कार जैसे घृणित अपराध कर मानवता को कलंकित किया जा रहा है। साक्ष्य के अभाव में ये अपराधी अदालतों से भी छूट जाते हैं। मेरे नगर में एक के बाद एक 4 कन्याओं के साथ बलात्कार और हत्या के प्रकरण हुए, जिसमें थानेदार ने जन आक्रोश से बचने के लिए अपने खानसामा को ही आरोपी बनाकर कोर्ट में पेश कर दिया। असली कातिल और बलात्कारी आज तक पकड़ में नहीं आए और केस पर पर्दा पड़ गया।

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  3. उपन्‍यास अंश रोचक है। किन्‍तु बीच में थोड़ा बोझिल हो जाता है। बहरहाल मुझे तीन पंक्तियां अनावश्‍यक लगीं। वे थोड़ी कृत्रिमता पैदा करती हैं।
    *जानती तो सरला भी नहीं थी......।
    *मगर घर लौटकर, बिना बताए अस्पताल जाने के लिए चारों की जमकर पिटाई हुई।
    *इस साल गली के किसी भी बच्चे का रिजल्ट ठीक नहीं आया।

    हां यह अंश पढ़कर पूरा उपन्‍यास पढ़ने की इच्‍छा जरूर हो रही है। बताएं कैसे पढ़ सकते हैं।

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  4. उपन्यास सामयिक प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। पूरा पता है
    सामयिक प्रकाशन
    3320-21, जटवाडा, नेताजी सुभाष मार्ग
    दरियागंज, नई दिल्ली-110002

    Read More: http://lalitdotcom.blogspot.com/

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  5. पाठक मंच में चर्चा व प्रशंसा के लिये बधाई।
    आपका लेखन सार्थक है।
    वैसे मेरी राय में तो भूभल उपन्यास क्लासिक रचना है।
    उसे सबकी स्वीकृति तो मिलना ही चाहिये।
    उपन्यास पर वाराणसी की विद्वत् परिषद द्वारा पुरस्कार दिया जा रहा है इसके लिये भी हार्दिक बधाई। कोटि कोटि शुभकामना।

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  6. कच्चे मन पर पक्के निशान...बचपन की दुर्घटनाएं कभी चैन नहीं लेने देती ..
    वीभत्स और मार्मिक!

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  7. बहुत मार्मिक..रचना का प्रवाह अपने साथ बांधे रखता है..पूरा उपन्यास पढाने की उत्सुकता जाग्रत हो गयी..शुभकामनाएं !

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  8. क्या बात है इतना अच्छा एवं मार्मिक लेख है की कुछ शब्दों के जरिये बयां न हो पाए ....

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  9. मीनाक्षी जी सबसे पहले तो दीपावली की हार्दिक शुभ-कामनाएं । और फिर इस उपन्यास के लिये बधाई । इसका उल्लेख ग्वालियर की ही डा. सत्या शुक्ला ने किया था । उन्होंने बताया कि उन्हें इसकी समीक्षा करनी है । मैं तो सुन कर ही गद्गद् हो उठी । अब इसे पढूँगी भी ।

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  10. प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।

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  11. "भूभल" se udhrit yah kathansh bahut hi marmik laga..upnyas padne ki man mein utsuk ho utha..
    saarthak prastuti ke liye dhanyavaad...

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  12. कच्चे मन पर पक्के निशान……………उम्र भर नही मिटते………बेहद मार्मिक चित्रण ………अब तो आगे पढने की उत्सुकता हो गयी है………॥

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  13. सार्थक प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । आभार.।

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आपकी सार्थक टिप्पणियों का स्वागत है।