दीपशिखा की निगाह घड़ी पर पड़ी, रात के ढाई बज रहे हैं । उसे अब तक नींद नहीं आ पाई है । रात ग्यारह बजे से वह सोने के लिए लेटी है । मगर साढ़े तीन घंटों से उसकी कोशिश जारी है और सफलता अभी तक नहीं मिल सकी है । घड़ियों की लगातार चल रही टिक...टिक...रात का सन्नाटा तोड़ रही है । दीपशिखा को लग रहा है, वह इसी शोर के कारण नहीं सो पा रही है । एक तो इस बड़े बेडरूम में दो दीवार घड़ियां हैं और पलंग के पास इधर, बिल्कुल कान के पास...सारी घड़ियों का शोर...उफ... टिक...टिक...टिक...टिक...उसे शोर और तेज लगा । शायद पास के कमरों में लगी घड़ियों का शोर भी उसके कानों में पड़ने लगा ।
हर कमरे में घड़ी जरूरी है । समय को साधने के लिए । फिर टेबल घड़ी अलार्म के लिए जरूरी है । उसे याद आया बचपन में घर में केवल एक घड़ी हुआ करती थी, केवल एक रिस्ट वॉच, वो भी बाबूजी दफतर लगाकर जाते थे । बाकी, समय देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी । मोटे तौर पर रेडियो कार्यक्रमों के आधार पर तथा बीच-बीच की गई समय की घोषणा से काम चल जाता था । फिर आसपास के बच्चों को स्कूल से आते-जाते देख समय का अंदाज हो जाता था और स्कूल सध जाता था । कभी देर नहीं हुई, परीक्षा में भी नहीं ।
आसपास के कई घरों में से घड़ी केवल मोनू के यहां थी, पुराने जमाने की दीवार घड़ी, जो हर घंटे टन-टन करके बजती थी, जितनी बजी हो उतने घंटे । आसपास के सभी लोगों का काम उसके घंटे सुनकर चल जाता । फिर बीच में जरूरत पड़ी तो उन्हें आवाज देकर पूछ लिया । इसी बहाने बातचीत भी हो जाती । मगर यह पुरानी बात है, तब इतना धीरज और सहनशक्ति थी । न पूछने वालों को खीझ होती न बताने वालों को । तब तो किसी अजनबी के पास भी यदि घड़ी हो तो टाइम पूछने के बहाने बातचीत शुरू करने का अच्छा माध्यम हो जाती थी, घड़ी ।
पर, उन दिनों यूं हर पल का हिसाब नहीं रखना होता था । अब तो टाइम पूछने जाने का भी टाइम नहीं है । बेडरूम में भी दो घड़ियां दीपशिखा ने इसलिए लगा दी कि सिर घुमाकर टाइम देखने में दो पल भी बर्बाद न हों । आंख उठाई और टाईम देख लिया ।
वो दिन कब हवा हो गए, दीपशिखा ने बहुत जोर डाला दिमाग पर, मगर याद नहीं आया । उसे बस याद आया नौकरी लगने, शादी होने के बाद से घड़ी के कांटों से जिंदगी बंध गई । सुबह यदि दो मिनिट भी देर हो गई तो पूरा दिन बेकार । बस छूट जाती, अगली बस दूर से लेना होता । पतिदेव की तो और मुश्किल, वे अपनी गाड़ी से जाते, मगर दो मिनिट की देरी उन्हें बड़े जाम में फंसा सकती थी । फिर बच्चों का स्कूल । उसे लगा शहर के बड़ा होने से ही ऐसा हुआ है ।
आज उसकी सेवानिवृत्ति के बाद की पहली रात है । बच्चे नौकरियों पर बाहर हैं । पतिदेव दुनिया में नहीं हैं । सारी बातें उसे क्रम से याद आ रही हैं । नहीं आ रही है तो बस नींद । बीते बरस कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला और आज उनचालीस साल की नौकरी और साठ साल की उम्र पूरी करके फिर वह घड़ियों की टिक-टिक में उलझी है । दीपषिखा ने तय किया कि सुबह उठकर वह सबसे पहले सारी घड़ियों को हटा देगी । तभी उसे ख्याल आया, सुबह क्यों अभी क्यों नहीं । वह तुरंत उठी और उसने फुर्ती से सारी घड़ियों के सेल निकालकर उन्हें उतार दिया । घर में शांति फैल गई । वास्तव में यही टिक-टिक उसे चिड़चिड़ा किए दे रही थी, उसने सोचा । फिर आराम से लेट गई । सचमुच उसे नींद आ गई, घड़ियों का शोर बंद हो जाने से या रात बहुत बीत जाने से । सुबह दीपशिखा की नींद खुली तो धूप बेडरूम की खिड़की से उसके पलंग तक आ गई थी । आदतन उसकी निगाह दीवार पर गई । ओह ! वहां से तो घड़ी मैनें ही हटाई है । दीपशिखा को याद आया । अभी शायद नौ बजे होंगे । उसने पलंग तक आई धूप से अंदाज लगाया । हुंह । कितने भी बजे हों । अब मैं घड़ी के कांटों से आजाद हूं । वह जल्दी से दो-तीन कप चाय बना, केटली में भरकर ले लाई और वहीं पलंग पर टे् सहित रखकर आराम से पीने लगी । सचमुच घड़ियों के न होने से कितना सुकून लग रहा है । दीपशिखा सोच रही है । वरना अब तक तो जाने कितनी बार घड़ी पर निगाह जाती और वह चाय के साथ इतमीनान का लुत्फ नहीं ले पाती । चाय पीकर, घड़ी रहित बाथरूम में आराम से नहाकर वह बेफिक्री से देर तक तैयार होती रही । नहाने और तैयार होने में कितना समय लगा, उसे खुद नहीं पता और वह जानना भी नहीं चाहती है। मगर सच तो यह है कि घड़ियों को हटाकर भी वह घड़ियों से मुक्त नहीं हो पा रही है ।
हां, वह घड़ियों के न होने से उपजे सुकून को हर पल महसूस कर रही है । तैयार होकर उसने हाथ में पहले आदतन घड़ी पहनी फिर निकाल दी । फिर घूमने के इरादे से बाहर निकल आई । बस या टेक्सी...कुछ पल सोचते हुए वह फिर मुसकाई । मन ही मन उसने तय किया कि जब कहीं पहुंचने की समय सीमा न हो तो बस से बेहतर कुछ नहीं । वह बस में बैठी । बैठती तो वह रोज भी थी । मगर आज की बात और है । आज बस से कहीं पहुंचने की जल्दी उसे जरा भी नहीं है । वह इतमीनान से बैठी है । खिड़की से बाहर का नजारा उसने आज ही देखा और महसूस किया । उसने बस में बैठे लोगों पर नजर डाली । सब लोग उसी बेचैनी में बैठे हैं, जिसमें कल तक वह बैठा करती थी । वे बार-बार घड़ी देखते हैं और खीझते हैं । सबको गन्तव्य तक पहुंचने की बेचैनी है । वह मुसकाई और उसने सोचा बेचैनी से बस की गति नहीं बढ़ती । फिर उसने पास में बैठी स्त्री को देखा । उससे बात करने की गरज से टाईम पूछा । मगर टाईम बताते ही वह स्त्री बहुत बेचैन हो गई । कुछ पल बाद खड़ी हो गई मानो उसके खड़े होने से बस जल्दी पहुंच जाएगी ।
खैर । कई स्टॉप आए और गए । वह उतर सकती थी । मगर नहीं उतरी । वह आखिरी स्टॉप पर उतरी । सामने एक बड़ा शापिंग मॉल देख वह वहीं चल दी । भीतर जाते ही खाने की चीजों की बड़ी सी नामी दुकान देख उसे भूख लग आई । पेटपूजा कर वह वहीं मल्टीप्लेक्स की टिकिट खिड़की पर जा खड़ी हो गई । ‘‘अभी जो शो होने वाला है, उसी का टिकिट दे दो ।’’ उसने कहा तो बुकिंग क्लर्क चौंका । फिर बोला ‘‘एक शो अभी चल रहा है और अगले शो में अभी टाईम है ।’’ उफ, फिर आड़े आया ये टाईम । अपनी खीझ को परे झटक वह मुसकाई । उसने अगले शो का टिकिट ले लिया और इतमीनान से बाहर आकर प्रतीक्षा करने लगी । शो शुरू होने का अंदाज उसने दूसरे लोगों को थियेटर में जाते देखकर लगाया और वह भी चली गई ।
फिल्म देखकर निकली तो पाया कि सूरज ढलने में अभी देर है । वह घर की ओर रवाना हुई और शाम होने के पहले पहुंच गई । बालकनी में बैठकर चाय पीते हुए उसने पहली बार अपने घर से सूर्यास्त देखा और देर तक देखती रही । सब कुछ अंधेरे में डूबने के बाद जब सड़क की बत्तियां जली तब वह भीतर आई । लाइट जलाने के साथ ही उसकी निगाह, दीवार पर वहां पड़ी, जहां घड़ी नहीं थी । अब वह टाईम जानना चाहती थी क्योंकि अब उसे बिटिया के फोन का इंतजार था । रोज ठीक आठ बजे उसका फोन आता है । आठ बजने में कितना समय बाकी होगा, उसे जरा भी अंदाज नहीं हो पा रहा है । एक पल को घड़ी वापस लगाने का ख्याल आया, मगर इसके साथ ही खिझानेवाली टिक-टिक भी याद आ गई । उसने सोचा मोबाइल उठाकर घड़ी देखे पर यह विचार भी उसने झटक दिया । फिर उसने रिमोट उठाया और टी.वी. चालू कर दिया । मगर तभी लाइट चली गई । वह फिर बाहर आकर बैठ गई । पता नहीं कितने बजे हैं ! बिटिया का फोन कब आएगा ! लाइट कब आएगी ! समय पता होता तो काटना आसान होता शायद...। सोचती हुई वह उबने लगी । फिर फोन की घंटी बजी और दूसरी ओर से बेटी की आवाज सुनकर वह समझ गई कि रात के आठ बजे हैं । मगर फिर भी लंबे इंतजार की ऊब शब्दों में बदलकर निकली-‘‘आज बहुत देर हो गई...मुझे चिंता हो रही थी ।’’
‘‘ओह मां ठीक आठ बजे हैं चाहों तो घड़ी मिला लो ।’’ बेटी ने कहा तो वह फिर अपनी रौ में बह चली । घड़ियों से अपनी आजादी की बात बेटी को बताते हुए वह अतिरिक्त खुश थी । मां की खुशी में बेटी भी खुश हुई मगर घड़ियों से आजाद जिंदगी की कल्पना उसे अजीब लगी । पर वह कुछ नहीं बोली।
फिर रात का खाना खाते हुए वह टी.वी. देखती रही । और जब रीपीट सीरीयल शुरू हुए तो उसने टी.वी. बंद कर दिया और सोने की तैयारी करने लगी । बिस्तर पर लेटते ही आदतन उसकी नजर दीवार पर पड़ी । उसे सूनापन लगने लगा ।शांति उसे काटने लगी । घोर सन्नाटा । कैसा मनहूस लग रहा है । कुछ मिसिंग है । दीवारों पर बार-बार नजर जाती । घड़ी देखते हुए समय कट जाता है, और कुछ नहीं तो यही सोचकर कि तीन घंटे हो गए नींद नहीं आई या सुबह होने में चार घंटे बाकी हैं । उसे लगा टिक-टिक की लोरी सी सुनते हुए नींद कब आ जाती थी, पता ही नहीं चलता था । टिक-टिक में किसी के होने का एहसास था । कैसी लयबद्ध टिक-टिक आती थी, हर कमरे से...कैसा सुमधुर संगीत...। उसे घड़ियों की टिक-टिक याद आने लगी । उसने सोचा सुबह उठकर सबसे पहले सारी घड़ियां चालू करके लगाउंगी । तभी उसे ख्याल आया, सुबह क्यों, अभी क्यों नहीं । वह फौरन उठी और उसने फुर्ती से सब घड़ियों में सेल डालकर उन्हे उनकी जगह पर टांग दिया ।
और इस नीरवता में घड़ियों की टिक-टिक ने उसे जीवंतता के एहसास से भर दिया । उसे अपना घर अपना सा लगने लगा, और घड़ियां अपनी सहेलियां ।
हर कमरे में घड़ी जरूरी है । समय को साधने के लिए । फिर टेबल घड़ी अलार्म के लिए जरूरी है । उसे याद आया बचपन में घर में केवल एक घड़ी हुआ करती थी, केवल एक रिस्ट वॉच, वो भी बाबूजी दफतर लगाकर जाते थे । बाकी, समय देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी । मोटे तौर पर रेडियो कार्यक्रमों के आधार पर तथा बीच-बीच की गई समय की घोषणा से काम चल जाता था । फिर आसपास के बच्चों को स्कूल से आते-जाते देख समय का अंदाज हो जाता था और स्कूल सध जाता था । कभी देर नहीं हुई, परीक्षा में भी नहीं ।
आसपास के कई घरों में से घड़ी केवल मोनू के यहां थी, पुराने जमाने की दीवार घड़ी, जो हर घंटे टन-टन करके बजती थी, जितनी बजी हो उतने घंटे । आसपास के सभी लोगों का काम उसके घंटे सुनकर चल जाता । फिर बीच में जरूरत पड़ी तो उन्हें आवाज देकर पूछ लिया । इसी बहाने बातचीत भी हो जाती । मगर यह पुरानी बात है, तब इतना धीरज और सहनशक्ति थी । न पूछने वालों को खीझ होती न बताने वालों को । तब तो किसी अजनबी के पास भी यदि घड़ी हो तो टाइम पूछने के बहाने बातचीत शुरू करने का अच्छा माध्यम हो जाती थी, घड़ी ।
पर, उन दिनों यूं हर पल का हिसाब नहीं रखना होता था । अब तो टाइम पूछने जाने का भी टाइम नहीं है । बेडरूम में भी दो घड़ियां दीपशिखा ने इसलिए लगा दी कि सिर घुमाकर टाइम देखने में दो पल भी बर्बाद न हों । आंख उठाई और टाईम देख लिया ।
वो दिन कब हवा हो गए, दीपशिखा ने बहुत जोर डाला दिमाग पर, मगर याद नहीं आया । उसे बस याद आया नौकरी लगने, शादी होने के बाद से घड़ी के कांटों से जिंदगी बंध गई । सुबह यदि दो मिनिट भी देर हो गई तो पूरा दिन बेकार । बस छूट जाती, अगली बस दूर से लेना होता । पतिदेव की तो और मुश्किल, वे अपनी गाड़ी से जाते, मगर दो मिनिट की देरी उन्हें बड़े जाम में फंसा सकती थी । फिर बच्चों का स्कूल । उसे लगा शहर के बड़ा होने से ही ऐसा हुआ है ।
आज उसकी सेवानिवृत्ति के बाद की पहली रात है । बच्चे नौकरियों पर बाहर हैं । पतिदेव दुनिया में नहीं हैं । सारी बातें उसे क्रम से याद आ रही हैं । नहीं आ रही है तो बस नींद । बीते बरस कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला और आज उनचालीस साल की नौकरी और साठ साल की उम्र पूरी करके फिर वह घड़ियों की टिक-टिक में उलझी है । दीपषिखा ने तय किया कि सुबह उठकर वह सबसे पहले सारी घड़ियों को हटा देगी । तभी उसे ख्याल आया, सुबह क्यों अभी क्यों नहीं । वह तुरंत उठी और उसने फुर्ती से सारी घड़ियों के सेल निकालकर उन्हें उतार दिया । घर में शांति फैल गई । वास्तव में यही टिक-टिक उसे चिड़चिड़ा किए दे रही थी, उसने सोचा । फिर आराम से लेट गई । सचमुच उसे नींद आ गई, घड़ियों का शोर बंद हो जाने से या रात बहुत बीत जाने से । सुबह दीपशिखा की नींद खुली तो धूप बेडरूम की खिड़की से उसके पलंग तक आ गई थी । आदतन उसकी निगाह दीवार पर गई । ओह ! वहां से तो घड़ी मैनें ही हटाई है । दीपशिखा को याद आया । अभी शायद नौ बजे होंगे । उसने पलंग तक आई धूप से अंदाज लगाया । हुंह । कितने भी बजे हों । अब मैं घड़ी के कांटों से आजाद हूं । वह जल्दी से दो-तीन कप चाय बना, केटली में भरकर ले लाई और वहीं पलंग पर टे् सहित रखकर आराम से पीने लगी । सचमुच घड़ियों के न होने से कितना सुकून लग रहा है । दीपशिखा सोच रही है । वरना अब तक तो जाने कितनी बार घड़ी पर निगाह जाती और वह चाय के साथ इतमीनान का लुत्फ नहीं ले पाती । चाय पीकर, घड़ी रहित बाथरूम में आराम से नहाकर वह बेफिक्री से देर तक तैयार होती रही । नहाने और तैयार होने में कितना समय लगा, उसे खुद नहीं पता और वह जानना भी नहीं चाहती है। मगर सच तो यह है कि घड़ियों को हटाकर भी वह घड़ियों से मुक्त नहीं हो पा रही है ।
हां, वह घड़ियों के न होने से उपजे सुकून को हर पल महसूस कर रही है । तैयार होकर उसने हाथ में पहले आदतन घड़ी पहनी फिर निकाल दी । फिर घूमने के इरादे से बाहर निकल आई । बस या टेक्सी...कुछ पल सोचते हुए वह फिर मुसकाई । मन ही मन उसने तय किया कि जब कहीं पहुंचने की समय सीमा न हो तो बस से बेहतर कुछ नहीं । वह बस में बैठी । बैठती तो वह रोज भी थी । मगर आज की बात और है । आज बस से कहीं पहुंचने की जल्दी उसे जरा भी नहीं है । वह इतमीनान से बैठी है । खिड़की से बाहर का नजारा उसने आज ही देखा और महसूस किया । उसने बस में बैठे लोगों पर नजर डाली । सब लोग उसी बेचैनी में बैठे हैं, जिसमें कल तक वह बैठा करती थी । वे बार-बार घड़ी देखते हैं और खीझते हैं । सबको गन्तव्य तक पहुंचने की बेचैनी है । वह मुसकाई और उसने सोचा बेचैनी से बस की गति नहीं बढ़ती । फिर उसने पास में बैठी स्त्री को देखा । उससे बात करने की गरज से टाईम पूछा । मगर टाईम बताते ही वह स्त्री बहुत बेचैन हो गई । कुछ पल बाद खड़ी हो गई मानो उसके खड़े होने से बस जल्दी पहुंच जाएगी ।
खैर । कई स्टॉप आए और गए । वह उतर सकती थी । मगर नहीं उतरी । वह आखिरी स्टॉप पर उतरी । सामने एक बड़ा शापिंग मॉल देख वह वहीं चल दी । भीतर जाते ही खाने की चीजों की बड़ी सी नामी दुकान देख उसे भूख लग आई । पेटपूजा कर वह वहीं मल्टीप्लेक्स की टिकिट खिड़की पर जा खड़ी हो गई । ‘‘अभी जो शो होने वाला है, उसी का टिकिट दे दो ।’’ उसने कहा तो बुकिंग क्लर्क चौंका । फिर बोला ‘‘एक शो अभी चल रहा है और अगले शो में अभी टाईम है ।’’ उफ, फिर आड़े आया ये टाईम । अपनी खीझ को परे झटक वह मुसकाई । उसने अगले शो का टिकिट ले लिया और इतमीनान से बाहर आकर प्रतीक्षा करने लगी । शो शुरू होने का अंदाज उसने दूसरे लोगों को थियेटर में जाते देखकर लगाया और वह भी चली गई ।
फिल्म देखकर निकली तो पाया कि सूरज ढलने में अभी देर है । वह घर की ओर रवाना हुई और शाम होने के पहले पहुंच गई । बालकनी में बैठकर चाय पीते हुए उसने पहली बार अपने घर से सूर्यास्त देखा और देर तक देखती रही । सब कुछ अंधेरे में डूबने के बाद जब सड़क की बत्तियां जली तब वह भीतर आई । लाइट जलाने के साथ ही उसकी निगाह, दीवार पर वहां पड़ी, जहां घड़ी नहीं थी । अब वह टाईम जानना चाहती थी क्योंकि अब उसे बिटिया के फोन का इंतजार था । रोज ठीक आठ बजे उसका फोन आता है । आठ बजने में कितना समय बाकी होगा, उसे जरा भी अंदाज नहीं हो पा रहा है । एक पल को घड़ी वापस लगाने का ख्याल आया, मगर इसके साथ ही खिझानेवाली टिक-टिक भी याद आ गई । उसने सोचा मोबाइल उठाकर घड़ी देखे पर यह विचार भी उसने झटक दिया । फिर उसने रिमोट उठाया और टी.वी. चालू कर दिया । मगर तभी लाइट चली गई । वह फिर बाहर आकर बैठ गई । पता नहीं कितने बजे हैं ! बिटिया का फोन कब आएगा ! लाइट कब आएगी ! समय पता होता तो काटना आसान होता शायद...। सोचती हुई वह उबने लगी । फिर फोन की घंटी बजी और दूसरी ओर से बेटी की आवाज सुनकर वह समझ गई कि रात के आठ बजे हैं । मगर फिर भी लंबे इंतजार की ऊब शब्दों में बदलकर निकली-‘‘आज बहुत देर हो गई...मुझे चिंता हो रही थी ।’’
‘‘ओह मां ठीक आठ बजे हैं चाहों तो घड़ी मिला लो ।’’ बेटी ने कहा तो वह फिर अपनी रौ में बह चली । घड़ियों से अपनी आजादी की बात बेटी को बताते हुए वह अतिरिक्त खुश थी । मां की खुशी में बेटी भी खुश हुई मगर घड़ियों से आजाद जिंदगी की कल्पना उसे अजीब लगी । पर वह कुछ नहीं बोली।
फिर रात का खाना खाते हुए वह टी.वी. देखती रही । और जब रीपीट सीरीयल शुरू हुए तो उसने टी.वी. बंद कर दिया और सोने की तैयारी करने लगी । बिस्तर पर लेटते ही आदतन उसकी नजर दीवार पर पड़ी । उसे सूनापन लगने लगा ।शांति उसे काटने लगी । घोर सन्नाटा । कैसा मनहूस लग रहा है । कुछ मिसिंग है । दीवारों पर बार-बार नजर जाती । घड़ी देखते हुए समय कट जाता है, और कुछ नहीं तो यही सोचकर कि तीन घंटे हो गए नींद नहीं आई या सुबह होने में चार घंटे बाकी हैं । उसे लगा टिक-टिक की लोरी सी सुनते हुए नींद कब आ जाती थी, पता ही नहीं चलता था । टिक-टिक में किसी के होने का एहसास था । कैसी लयबद्ध टिक-टिक आती थी, हर कमरे से...कैसा सुमधुर संगीत...। उसे घड़ियों की टिक-टिक याद आने लगी । उसने सोचा सुबह उठकर सबसे पहले सारी घड़ियां चालू करके लगाउंगी । तभी उसे ख्याल आया, सुबह क्यों, अभी क्यों नहीं । वह फौरन उठी और उसने फुर्ती से सब घड़ियों में सेल डालकर उन्हे उनकी जगह पर टांग दिया ।
और इस नीरवता में घड़ियों की टिक-टिक ने उसे जीवंतता के एहसास से भर दिया । उसे अपना घर अपना सा लगने लगा, और घड़ियां अपनी सहेलियां ।
घड़ी-घड़ी घड़ी देखने वाले नहीं रह सके बिना घड़ी।
जवाब देंहटाएंजीवन की हर घड़ी में बड़ी महत्वपुर्ण है यह घड़ी।।
बरसों एक ही रुटीन को निभाने वालों को सेवानिवृति के बाद समय काटना कठिन हो जाता है।
सेवानिवृत के मनोभावों को दर्शाती सुंदर कहानी के लिए आपका आभार।
शुभकामनाएं
बहुत सुदर अभिव्यक्ति .. जीवन में जो चीजें तनाव का कारण है .. उन्हीं के सहारे जीवन भी कटता है !!
जवाब देंहटाएंउफ, कब से सोच रहा था कि रात में सुनायी देने वाली घड़ी की टिप टिप और पानी की टप टप पर लिखूँगा। आपकी कहानी पढ़ कर बिलकुल अपना सा लग रहा है। मन व्यग्र हो तो बहुत परेशान करती है यह टिक टिक और टप टप।
जवाब देंहटाएंएक पुराना गाना है-
जवाब देंहटाएंछोटी सी यह दुनिया
पहचाने रास्ते हैं,कभी तो मिलोगे तो पूछेंगे हाल।
तो हम फिर मिल ही गए। बंगलौर में दो साल हो गए हैं। बीच बीच में आपकी याद आती रही है। अब ब्लाग का बहाना मिल ही गया है। मेरे दो ब्लाग और हैं वे भी आपने देखे ही होंगे।
शुभकामनाएं
सचमुच आपने एक ऐसे विषय को उठाया,जो हमारी जिंदगी का जरूरी हिस्सा बन गया है। पर लगता है आप जल्दबाजी में इसे थोडे में समेट गईं।
जवाब देंहटाएंमीनाक्षी जी सबसे पहले तो ब्लाग पर आने के लिये शुक्रिया । क्योंकि आपसे मुलाकात होगई । आपकी कहानी अच्छी लगी । वास्तव में दैनिक जीवन में जिन चीजों के हम अभ्यस्त होजाते हैं वे जीवन का हिस्सा बन जातीं हैं विशेषकर एकाकीपन में । इस बात को आपने काफी सूक्ष्मता से लिया है ।
जवाब देंहटाएंइस नीरवता में घड़ियों की टिक-टिक ने उसे जीवंतता के एहसास से भर दिया
जवाब देंहटाएंजीवन से जुड़े इस विषय पर आपकी रोचक कहानी सार्थक है ...आपका शुक्रिया
बहुत सुन्दर कहानी , मीनाक्षी जी । आपका ब्लाग bolg world .com में जुङ गया है ।
जवाब देंहटाएंकृपया देख लें । और उचित सलाह भी दें । bolg world .com तक जाने के
लिये सत्यकीखोज @ आत्मग्यान की ब्लाग लिस्ट पर जाँय । धन्यवाद ।
बहुत सुन्दर कहानी| धन्यवाद|
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